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चतुर्विंशति स्तोत्र == = = हैं | इन्द्रियातीत दशा में इन्द्रियजन्य रस किस प्रकार टिक सकते हैं ? नहीं रह सकते ।। ६ ।।
यह सद्भाव है यह असद्रूप है इत्यादि अशेष विकल्प जालों को आपने समाप्त कर दिया । संकल्प-विकल्पों की तरंगें स्तमित हो जाने से चैतन्यरससिन्धु निस्तरंग हो गया | अस्तु, राग-द्वेष रूप कल्लोलों से रहित आत्मा में आत्मस्थ अनन्त ज्ञानामृत सागर ही उछलने लगा । यह सुधारस स्पष्ट स्वभावस्वरूप ही झलकता है । अर्थात् परभाव अभाव होते ही स्वभाव भाव मात्र ही साक्षात् स्पष्ट रूप से आप में झलक रहा है || ७ ||
आत्मा स्वभाव से अचलित एक मात्रज्ञानदृष्टि का स्पष्ट हुआ प्रकाश पुञ्ज ही आपका उच्चहास है | चारों ओर से घनाकार रूप में भरा केवलज्ञान का सार ही आपके बटुर्दिक लिख रहा है । अर्थात् निर्मल परम वीतराग ज्ञान की छटा आपके चारों और व्याप्त हो भामण्डल के रूप में प्रकट हो रही है । इसकी स्वच्छता का निरीक्षक इसमें अपने अतीत के तीन, वर्तमान का एक और भावी तीन, इस प्रकार सातभवों के देख लेता है इतनी विशिष्ट स्वच्छता है इसमें ।। ८ ||
हे देव ! आपने अपने ही अकेले पुरुषार्थ से आत्मा में लगे कल्मष-कर्मों का प्रक्षालन कर अपने आत्मस्वरूप को चिन्मयरूप से उज्ज्वल बनाया | आप में पूर्णतः अनादि मध्य और अन्त रूप से एक मात्र चैतन्य स्वभाव ही प्रतिभासित हो रहा है । अतएव अब एक मात्र आत्मानुभूति ही विलसित हो रही है । अर्थात् आप अपने चिदानन्द रसानुभूति में ही निमग्न हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे ॥ ९ ॥
आपके सर्वव्यापी, नित्य, परिपूर्ण, ज्ञान के तेज में एक मात्र स्वानुभव जन्य चैतन्य ही प्रकाशित हो रहा है । मेरे अन्दर भी वही प्रवाह चारों ओर से प्रवाहित हो रहा है । इसे खण्डित करने में कोई भी विभाव
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