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चतुर्विंशति स्तोत्र
हे प्रभो ! आपका एक मात्र चैतन्य स्वभाव ही सर्वत्र व्याप्त है । यह अनादि अनन्त है । स्वभाव तर्क का विषय नहीं होता । यह निर्विवाद सिद्ध तथ्य है । अतः आपके भी चैतन्य स्वभाव का कोई रोधक नहीं है । हे विभो ! स्वभाव की अगाध - असीम गहराई में निमग्न महिमा एक रूप चिदानन्द रस प्रवाह में निमग्न प्रकाशित हो रही है ।। ३ ।।
हे जिन ! तुमने चेतना की समग्रता को अत्युच्च रूप में संकलित कर लिया | अब वह उज्ज्वल चिद ज्योति पुत्र उत्तरोत्तर प्रकाशमान होता हुआ अभिन्न धारा में उपर्युपर्य उछल रहा है । चिद् पिण्ड चण्डरूप से आप में ही दीप्यमान हो रहा है । आप एक मात्र अपने चैतन्य स्वभाव में ही सदाकाल को स्थित हो गये हैं । अर्थात् सर्वोच्चपद प्राप्त कर लिया । जिन स्वभाबोपलब्धि ही सर्वोत्कृष्ट प्राप्ति है ॥ ४ ॥
इस 'चिद्' स्वरूप के उच्चतमरूप से उछलते हुए अद्वितीय महान तेज में उद्दाम चेतना ही हिलोरे लेती हैं । ये अनन्त गुण पर्यायों से आप्यायित चेतना में चैतन्य की ही तरंगे तरंगित होती रहती हैं। जिस प्रकार तीव्र वेग से प्रवाहित जल प्रवाह में तरंगे जलरूप ही रहती हैं परन्तु चित्र-विचित्र रूप से अन्य पदार्थों का प्रतिबिम्ब भी प्रतीत होता है । इसी प्रकार ज्ञानचेतना की शुद्धता एक रूप ही रहती है, अन्य पदार्थ उसमें एकमेक से हुए प्रतिभासित होते रहते हैं। उनसे चेतन्य प्रकाश में किसी भी प्रकार की विकृति नहीं हो सकती ॥ ५ ॥
हे प्रभो ! आपका परमोत्तम परिष्कृत शुद्ध ज्ञानमय तेज है । अपने स्वरूप में निखातरूप से स्थित होने पर ही वह आत्मीय तेज चमकता है । यह ज्ञानघन पुञ्ज प्रकाश स्वानुभव के द्वारा अनुभव में आता है । इस दशा में अन्य कोई रस टिक नहीं सकता । अतः अतीन्द्रिय ज्ञान स्वभाव में एक मात्र चिदानन्द रस ही प्रकट रहता है । अन्य सब नष्ट हो जाते
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