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चतुर्विशति स्तोत्र
हो तृष्णाभिभूत होकर संसार अपने ही कुकृत्यों-विपरीत अथक प्रयासों से श्रमित हो वेद खिन्न हो रहा है | संसार में जो कुछ भोगोपभोग सामग्री है वह सर्व मुझे ही प्राप्त हो इस चेष्टा में कठोर श्रम करता है और असफल प्रयास हो दीन-हीन दुखी हो रहा है | संसार स्वयं निस्सार है वहाँ सारभूत क्या मिले ? अतः विपरीत कर्म कर भ्रान्त हुआ स्वयं कर्मों से बद्ध हो शरीर रूप वन्दीखाने में पड़ा है । मुक्ति मार्ग से भ्रष्ट हो गया है |॥ २५ ।
पाठ-१०
अन्य नयों को गौण कर आत्म स्वभाव अपने ही स्वभाव में अन्तर्लीन रहता है | अपनी निज की अनन्त अर्थ पर्यायों की तरंगों से उच्चरूप से तरंगित होता हुआ भी अपने ज्ञानधन रूप चैतन्य में ही सीमित रहता है । अतएव हे प्रभो ! आप भी परमविशुद्ध ज्ञानधन स्वभाव रूप हैं | शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से विवेचना करने पर आप सर्वत्र ज्ञानाकार को धारण किये हैं । अतः मैं (आचार्य श्रेष्ट चारित्र चूडामणि श्री महावीर कीर्ति जी) भी आपको शुद्ध ज्ञान घनरूप में ही अपना स्तुत्य बनाऊँगा | अर्थात् विज्ञानघनरूप आपकी स्तुति करूँगा । क्योंकि ज्ञान से भिन्न अन्य आत्मा या परमात्मा नहीं है ।। १ ।। .
आपका एक मात्र शुद्धज्ञान चेतना से चेतित अपनी विराट, विश्व व्यापी तीव्र प्रकाश ज्योति की प्रभा का निरबाध प्रसार कर रहा है | ज्ञान प्रकाश अप्रतिहत है । वह प्रकाशपुञ्ज अभेददृष्टि से आपकी अभेद, अखण्ड एक रूपता को उदारता के साथ विशद रूप में प्रकाशित कर रहा है | बस, यही एक मात्र विश्वव्यापी ज्ञानघनरूप ही पूर्ण विशुद्ध हुआ आपका रूप है ।। २ ।।