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चतुर्विशति स्तोत्र
भाव समर्थ नहीं हो सकते । परन्तु मेरा यह प्रवाह अभी निस्पंद है-, प्रकट स्वानुभव में नहीं आ रहा । अभिप्राय यह है कि हे जिन ! आपका जो प्रकट स्वभाव है वही मेरा विकारावच्छन्न हुआ छिपा है । आपके निमित्त से मैं भी नसे प्रकट करने में सक्षम हो ॥ १० ॥
चैतन्य के साथ तन्मय हुआ आत्मा में अनादि से उसी में निमग्न था । किन्तु तेज छुपा रहा । उसी तेज के साथ अर्थात् ज्ञान चेतना रूप से ही प्रकट हुआ है । क्योंकि आच्छादित होने मात्र से स्वभाव दीप्ति कभी भी पृथक नहीं होती । यथा मेघों से आच्छादित विद्युतपुञ्ज अपनी स्वकान्ति को स्फुरित करती हुयी ही प्रकट चमकती है | अपनी कान्ति का त्याग कभी भी नहीं करती । इसी प्रकार कर्म पटलों से आच्छादित आत्मतेज कभी भी भिन्न नहीं हो सकता, ज्ञानघन रूप को लिए ही प्रकट होता है ॥ ११ ।।
__ हे जिन ! आपके आत्मानन्दरूप पुण्डरीक का सौरभ (सुगंध) अथवा सुख शान्तिरूप प्रताप आप ही की आत्मीय स्वच्छता से प्रकट हुआ है । यह विकासहास चतुर्दिक में व्याप्त हो रहा है | इस मकरन्द के इच्छुक सम्यक्दृष्टि भव्य का मन इसे पाने को लोलुपी किस प्रकार त्याग सकता है । जिस प्रकार सुमन सौरभ का लोलुपी मधुकर उसके परागपान का त्याग नहीं कर सकता । उसी प्रकार मुमुक्षु भव्यात्मा आपके चैतन्य विकास की पूर्णता जन्य परमानन्द रूप मकरन्दपान का लोलुपी सम्यक्दृष्टि आपका आश्रय किस प्रकार त्याग सकता है ? नहीं त्याग सकता ।। १२ ।।
सुसंवेदजन्य स्वानुभव रूप एक ही आनन्दरस से आप परिपूर्ण हो रहे हैं | एक मात्र सुख स्वभाव रूप ही हो आप । हे जिन ! ज्ञानानन्द ही सुखानन्द है और सुखानन्द ही आत्मानन्द है । अतः अभेद दृष्टि से, निश्चयनय से आप एक रस भरित ही हो गये । यह पर्यायदृष्टि से भेद-अनेकरूप भी चित् शक्ति अखण्डएक हो गयी, तो भी अनन्तगुणपर्यायों
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