________________
चतुर्विंशतिस्तोत्र
सहित प्रत्यक्ष हो जाते हैं। इस प्रकार अपने अनन्तवीर्य के प्रभाव से स्वरूप गुप्त हो सुख से अचलमूर्ति हो अवस्थित रहते हैं । अर्थात् अनन्त काल तक अनन्त चतुष्टय स्वभावलीन ही रहेंगे || १२ ||
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की तीक्ष्णता को अन्तिम सीमा में ले जाने में आपने वीर्य पराक्रम को लगाया । सम्यकदर्श और ज्ञान में निराकुलता को प्राप्त करने में विधिवत उपयुक्त किया । आकुलता का अभाव या राग-द्वेष का अभाव ही सम्यक चारित्र है । तथा हे देव निराकुलता ही आपला आत्मीय चिर सुख है । प्रगाढ़ स्वात्मोपयोग ही सुख है । सुख स्वरूप ही आप हो । अभिप्राय यह है कि आप ही सम्यग्दर्शन आदि रत्न त्रय स्वरूप हो और आप ही उसका फल रूप सुख हो । निश्चय नय से आत्म ही रत्नत्रय है, अनन्त चतुष्ट्य स्वरूप है ॥ १३ ॥
अनन्त दर्शन और वीर्य का सार निरन्तर अविच्छिन्न रहने वाला ज्ञान है जो आकुलता से रहित है, तृष्णा से सर्वथा विहीन हैं । हे भगवन् आपकी निराकुलता का फल सम्पूर्णता से चिरस्थायी, अचल, अविरल धारा रूप सुख है। इस सुख का समर्थ हेतु अविफल साधन आकुलता का अभाव हैं | यही नित्यानन्द आपका सुख आपमें निहित है ।। १४ ।।
हे भगवन्! अनादि संसार मार्ग से सर्वथा भिन्न स्वरूप आपने अनन्त सिद्धत्त्वपद को व्यवस्थित किया । त्रिकालवर्ती उस आत्मतत्व के शुद्ध स्वरूप को आप एकसाथ प्रत्यक्षरूप से देखते हो जानते हो । अर्थात् निश्चयनय से आप अपने ही शुद्ध स्वरूप के दृष्टा और ज्ञाता हो ।। १५ ।।
सम्यदर्शन ज्ञान और वीर्य से केन्द्रित हुयी आपकी अनन्त शक्तियाँ सामस्त्येन नित्य, अखण्ड रूप से स्थित हैं । यह द्रव्यदृष्टि से निराबाध होने पर भी पर्यायदृष्टि की अपेक्षा हे ईश ! ज्ञान की परम विशुद्ध उज्ज्वल ज्योति में सारा जगत अपनी अनन्तद्रव्यों की अनन्त पर्यायों युत प्रतिविम्बित हो
300
1