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चतुर्विंशतिस्तोत्र
इसे अनन्त विभाग रूप बनाता है । मुख्य अभिप्राय यह है कि निश्चय नयापेक्षा आप एक अखण्ड हैं, व्यवहारनयापेक्षा अनन्तविभाग भेद रूप भी हैं । अनेकान्त सिद्धान्त की यह परिया है ॥ १६ ॥
तत्त्व सामान्य विशेष धर्मो का पुञ्ज है। तभी तो विधि निषेध रूप सिद्धान्त सिद्ध होता है । आत्म तत्त्व भी तद्रूप धर्मों से युक्त है | अतः आपके अविचलित सुदृढ़ उपयुक्त में निश्चल होने पर भी आत्मीय शक्तियाँ विशेष धर्मापेक्षा अन्तभेदों को लिए प्रतिभासित हो रही हैं । परन्तु सामान्य धर्मापेक्षा वे एक मात्र चैतन्य स्वभाव में ही समाहित रहती हैं । हे विभो ! स्वभाव कभी भी भेद रूप नहीं होते हैं । आप निज चेतना में ही लीन रहते हैं । एक मात्र शुद्ध ज्ञान चेतना ही आत्मा है || १७ ||
ज्ञाता रूप से आपके स्थित होने पर ज्ञेयों के रूप से अनेक पर्यायों में आप भेदरूप भी हो । यद्यपि ज्ञेयभूत अनन्त पदार्थों का समूह आपके ज्ञानघन स्वरूप में एकमेक सा हुआ प्रतिभासित हो रहा है तथाऽपि आपके साथ एकाकार नहीं हो सकते हैं । अर्थात् तदाकार नहीं होते । आपके सिद्धान्त में बौद्धदर्शन की भांति ज्ञानोत्पत्ति तदाकार तद्रूप स्वीकृत नहीं है | ज्ञान ज्ञानमय तथा ज्ञेय ज्ञेय रूप ही रहते हैं । मात्र ज्ञानोपयोग की परम विशुद्धि ही ज्ञेय ज्ञायक भाव की सिद्धि करती है ॥ १८ ॥
प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व अपने-अपने निज प्रदेशों में ही रहता हैं । एक प्रदार्थ के प्रदेश अन्य पदार्थ रूप न तो परिणमन करते हैं और न ही तद्रूप होते हैं । यह जिन शासन का अखण्ड सिद्धान्त है । यही कारण हैं कि हे जिन ! आपके दर्शन, ज्ञान, वीर्य रूप प्रदेश सदैव आप में ही प्रतिभासित होते हैं, चारों ओर से आलान के समान अपने में सम्पुट हो वस्तु स्वरूप को बनाये रहते हैं। आलान का अर्थ हाथी बांधने की श्रृंखला होती है जो उसे चारों ओर से कसकर रखती है उसी प्रकार आत्मा को ज्ञान-दर्शन
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