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चतुर्विशति सोध
पाठ-९
हे जिन! आपने अपनी ही शक्ति से अपने में सर्वज्ञता, वीतरागता. हितोपदेशतादि गुण भरपूर - पूर्णतः प्रकट किये । सर्व शक्ति सम्पन्न ज्ञान चेतना के प्रकाश से दीप्तिमान होकर ही धर्म तीर्थ का प्रवर्तन किया | मोक्षमार्ग का प्रदर्शन किया । यही कारण है कि अन्य मिथ्या सिद्धान्त एकान्त वादियों के द्वारा अत्यन्त निष्ठुर कुतर्की वाक्यों द्वारा पराभूत करने का असफल प्रयास किये जाने पर भी आप अपने सिद्धान्त प्रतिपादन में अमन्द उत्साह व प्रयत्न से सन्नद्ध ही रहे | वे कुवाद वादी स्वयं ही पराजित हो गये ।। १ ।।
आप हे जिन! एक मात्र दृढ़प्रतिज्ञ हो एकत्त्व भावना में निष्कम्प अचल हुए और उसका फल अपने संकल्प का सार प्राप्त कर लिया । सम्पूर्ण वाह्याभ्यन्तर चौबीस प्रकार परिग्रह का त्याग कर दीन दुःखी संसारी भव्यात्माओं की अनुकम्पा-दया करने में समर्थ हुए । उत्कृष्ट शुभ संक्लेश परिणामों के द्वारा तीर्थकर प्रकृति का बंध होता है । अर्थात् आपने भी "मैं सारे जगत का कल्याण करूँ । शिवपथ पर कर्णधार बनूँ" इस प्रकार की उत्कट भावना की थी । जिसका मधुर फल आपने वीतरागी हो सर्वज्ञता को प्राप्त कर लिया । अतः सर्व जगत के उद्धारक हुए ॥ २ ॥
हे प्रभो! सम्यग्दर्शन से च्युत होने वाले कुमार्गी षनिकायोंभेदों में विभाजित समस्त जीव समूह को आपने अपने सूत्र-नियामक आगम द्वारा संरक्षित किया है । अर्थात् समस्त प्राणी समूह को जीवन जीने की कला सिखायी | किसी के प्रति आपको पक्षपात नहीं है । सभी जीवें और अन्य को भी जीने दें । यह आपकी अमिट; अनन्त वाणी का अकाट्य सर्वमान्य सूत्र है | आपका अशेष प्राणियों के प्रति वीतराग भाव साम्य सिद्धान्त यही था कि प्रत्येक भव्यात्मा अपना आत्मकल्याण करने में स्वतंत्र है । आत्म स्वातंत्र्य का ही एक मात्र पक्षपात था । यही तो अहिंसा परमोधर्मः