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सतुर्विशति स्तोत्र बारम्बार आपके चित् स्वभाव के द्वारा प्रहार किये गये, जिनसे ये कषाय रिपु वंचित किये गये । सब हय के शास्त्रों के महाा में भाग जाना चाहिए । इस प्रकार मानों वे पीछे हटीं । फिर भी उन कषायों के आक्रमण किये जाने पर भी आप (भगवन्) निष्कम्प ही बने रहे । उन दुष्ट कषायों को परास्त करने-उनका सामना करने में अपनी पूर्ण शक्ति का प्रयोग किया । क्योंकि आपने अपना दृढ़ संकल्प उनके नाश का कर लिया था॥ ४ ॥
हे प्रभो ! प्रतिक्षण आप अपने आत्मवीर्य में संतुलित रहे | मध्यान्तर में आप पूर्ण सतर्कता से अविचल ही बने रहे । अर्थात् निश्चल एकाग्र चिन्ता निरोध से ध्यानस्थ रहे । फलतः आपके द्वारा उनके प्रहारों ने आपको विचलित नहीं किया । समताभाव से वीतराग परिणति से आप स्वयं अपने ही स्व वीर्य द्वारा इस कषौटी पर खरे सिद्ध हुए । अभिप्राय यह है कि कषायों ने आपको ध्यान व्युत करने की भरपूर चेष्टा की परन्तु आप अपने संकल्प से तनिक भी विचलित नहीं हुए । अग्रतर ही होते रहे और दुष्ट कषायों का क्षय कर ही दिया |॥ ५ ॥
उपर्युक्त प्रकार दृढ़ संकल्प के बल से आपने अशेष कषायों का निःशेष क्षय कर ही दिया । अन्य सर्वज्ञता के घातक कर्म बलहीन हो स्वयं ही पलायित हो गये और आप निज निधि केवलज्ञान लक्ष्मी के अधीश हो गये । अपने ही पुरुषार्थ से आप अशेष विश्व के भोक्ता हो गये अर्थात् ज्ञाता होकर दृष्टा बने और एक साथ तीनों लोकों को अपने ज्ञान का विषय बना लिया । अभिप्राय यह है कि निश्चयनय से अपने ही चैतन्य स्वभाव ज्ञान-दर्शनादि गुणों के ज्ञाता दृष्टा व भोक्ता हुए । अनन्त सुख के भोक्ता हो गये । व्यवहार नय दृष्टि से पर रूप संसार के ज्ञाता-दृष्टा-भोक्ता हुए । इस प्रकार आपने निज स्वभाव से अपनी आत्मीय सम्पत्ति को प्राप्त किया और अन्य भव्यों को भी आत्म स्वातन्त्र्य प्राप्ति का मार्ग प्रदर्शित किया ।। ६ ॥