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चतुर्विंशति स्तोत्र
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पाठ-८ हे भगवन् ! आपका अनादिकाल से स्वभाव कषाय रंग से अनुरक्षित था । इसी से वह संकीर्ण हो रहा था । मिथ्यात्व, अज्ञान, प्रमादादि से आच्छादित था । भला विकसित कैसे होता ? अतः संकुचित हो रहा था | हे प्रभो आपने इसे अवगत कर शिवमग में प्रवेश किया और बलात् आपके द्वारा अन्तरंग-बहिरङ्ग लक्ष्मी अर्जित की गई । कषाय शत्रुओं का सर्वथा क्षयकर अनन्तज्ञान, दर्शन, वीर्य और सुखरूप अनन्त यतुष्टय स्वरूप अन्तरंग लक्ष्मी एवं समवशरण विभूति वहिरंग प्राप्त की । फलतः कषायों से उग्रतम वही स्वभाव रस परम शान्तरस में परिणमित हो गया । अपने स्वभाव को परमोत्तम शान्तरस में संक्रमित कर लिया । आचार्य देव स्वयं भी इसी पथ पर आरुढ़ होना चाहते हैं ।। १ ।।
जीवन्मुक्त होने पर आप सर्वज्ञ हुए । आप समस्त तत्त्वों को अबाधित रुप से ज्ञात कर अर्हत् अवस्था प्राप्त हो गये । इसका हेतू एक मात्र कषायों का क्षय होना ही है | इन कषायों का समूह ही बन्ध का हेतू है । कषाय सक्किन सदृश कर्मों को चिपका कर आत्मा को बंधनवद्ध कर कटु व मधुर फल प्रदान कर संसार भ्रमण कराती हैं । इसीलिए इससे विपरीत संवेग, वैराग्य रूप विरक्ति मार्ग ही आपने इष्ट समझा और संयम धारण कर उस पर चल अपने इष्ट की सिद्धि की || २ ।।
हे भगवन् ! आपने सम्यक् रूप से ज्ञात कर लिया कि कषायों के . द्वारा मेरा एक अविचल रूप नाना प्रकार का हो रहा है । ये ही नित्य उपयुक्त होकर स्वरूपोपलब्धि की साधक सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप रूप चारों आराधनाओं का घात कर रही हैं । इस प्रकार अवगत कर आपनेकषायों की चमू (सेना) पर आपने पूर्ण प्रयास के साथ आक्रमण किया और एक मात्र स्वयं के प्रयत्न से परास्त करने का प्रयास किया ।। ३ ।।
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