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चतुर्विशति स्तोत्र हे स्वामिन् ! आप अपने एक मात्र पूर्ण स्वरूप से प्रकट केवलज्ञान के प्रकाशपुञ्ज में पूर्ण उपयोग से तल्लीन हो गये । ज्ञानधन स्वरूप के ही भोक्ता हुए । यद्यपि पूर्ण वीतराग परिणति से परिणत हो गये । तथाऽपि आयु कर्म की स्थिति ने आप को समवशरण में रोक कर विराजमान कर लिया । इस प्रकार मोक्ष के मार्ग का प्रत्यक्ष प्रदर्शन करते हुए आपने संसार के भव्य जीवों के कल्याणार्थ धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया । भव्यों के तीव्र पुण्योदय से राग विरहित होने पर भी आपकी दिव्य ध्यान प्रकट हुयी और धर्मोपदेश द्वारा मोक्षमार्ग प्रदर्शित किया गया ।। ७ ।।
अनन्त धर्मों से युक्त वस्तु तत्त्व है ।अनन्त वस्तुओं से विश्व खचित है । भगवन ! वह सकल विश्व आपके ज्ञान में स्पष्ट झलकता है । इस प्रकार विश्व के ज्ञाता होकर भी आप उसका पूर्णतः प्रतिपादन नहीं कर पाते । क्योंकि प्रतिपादक वचनों की शक्ति सीमित है । आपका ज्ञान जितना जानता है, उतना प्रतिपादन में समर्थ होते हुए उसके वाचक वचनों की असमर्थता है । यही कारण है कि अखिल विश्व के अशेष पदार्थपुञ्ज के प्रत्यक्ष दृष्टा (देखनेवाले) होते हुए भी आपके द्वारा उनका अनन्तवाँ भाग मात्र प्रतिपादित किया गया है |॥ ९ ॥
हे जिन् ! आपके महान अद्भुत उत्तुंग ध्यान-शुक्लध्यान से निरुद्ध चित्त के प्रभाव से अनादिकालीन सुदृढ प्रकट प्रसरित मोहांधकार नष्ट कर दिया गया । इसी कारण से सुर, असुरों आदि द्वारा निश्चय व्यवहार नयों की अपेक्षा वस्तु तत्त्व के प्रतिपादक निर्धारण किया गया है । यह सुनिश्चित है कि आप ही तत्त्व के यथार्थ स्वरूप के ज्ञाता-दृष्टा होने से सन्मार्गोपदेष्टा हैं । क्योंकि कारण से कार्य की सिद्धि प्रसिद्ध है ॥ १० ॥
जिन शासन अनाद्यनन्त है । अनन्तों तीर्थंकरों ने अपने-अपने तीर्थ प्रवर्तन काल में उस अनेकान्तात्मक श्रेयमार्ग का अवबोध कराया है । अनन्त