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चतुर्विंशतिस्तोत्र
समझ रागञ्चर को ही आत्मसात् कर विष सदृश प्राणनाशक विषयों में ही प्रवृत्त हो रहे हैं । अर्थात् अज्ञानी हरी हरादि आहारादि चारों संज्ञाओं के ज्वर से रुग्न हुए हालाहलविष सदृश विषयों को ही औषधि समझ उन्हीं का सेवन करते हैं | संसार परिभ्रमण ही कर रहे हैं ॥। ११ ॥
कितने ही स्वयं को संयमी मन्यमाना, कितने ही काल से संयम मार्ग में प्रवर्तन कर रहे हैं। परन्तु अज्ञान वश अन्य- अन्य क्रियाओं का नाश कर अन्य क्रियाकाण्डों में रत हो रहे हैं । अर्थात् वाह्याडम्बर त्याग अन्तरग विषय - कषाय रूप क्रियाओं में फंस रहे हैं । परन्तु हे जिन ! आपने एक मात्र अत्यन्त उग्र तेजस्वी, चैतन्यशक्ति के पराक्रम द्वारा वाह्याभ्यन्तर अशेष क्रियाओं का बलात् निरोधकर डाला । परमपुष्ट यथाख्यात् चारित्र धारण किया ।। १२ ।।
है जिनदेव ! आप निरन्तर कर्तृत्त्व बुद्धि को नष्ट कर अकर्तापने की अनुभूति के प्रकाश में ही सम्यक् प्रकार से स्थित रहते हो । अशेष चर और अचर पदार्थों की परम्परा को बलात् पीकर अपने स्वभाव में स्थित हो गये। इतना ही नहीं, अपितु परम वीतरागभाव से उत्सुकता रहित हो अहर्निश अपने ही इष्ट स्वभाव को देखते हो । अपने ही ज्ञायक स्वभाव रूप निज शरीर को आत्मीय तत्त्वों से पुष्ट करते हो । पूर्णतः उसी में तन्मय हो रहे हो || १३ ||
आपकी अर्हत् दशा की उत्तम महिमा में ही आप स्थिति प्राप्त कर सम्पूर्ण विश्व की असीम सीमा को आत्मसात् कर विश्वेश्वर हो गये । स्वयं अशेष सम्पदा आप में संलग्न हो गई । सदैव श्वासोच्छ्वास रहित अपने में समाहित शक्तियों का भेद निरूपण करते हैं | अपनी स्वाभाविक सीमा का कभी भी उल्लंघन नहीं करते || १४ ||
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