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यतुर्विंशति स्तोत्र अप्राप्तपूर्व ज्ञानधन तत्त्व को अपने ही भेदविज्ञान के साथ मैत्रीभाव स्थापितकर एकाग्रचित्त से उसे नहीं पाते क्या ? प्राप्त करते ही हैं । अर्थात् आपके आदर्श से प्राप्त शक्तियों द्वारा निजात्मशक्तियों का प्रकाशन करतं हैं ।। ८ ।।
हे देव ! मेरा व्यवसाय (प्रयल) निरन्तर प्रवाहित विवेक रूपी दारुण धारा से श्रमित हुआ है | प्रमादयुक्त होने से कार्यकारी नहीं हो रहा । यदि निष्प्रमाद हो जाय तो स्वयं क्षणमात्र में आवरणों का संहार कर आन्तरिक शक्तियाँ आश्चर्यजनक अभ्युदयों के साथ जयशील हो जाती हैं । हे भगवन् ! आपने आत्मस्वरूपोपलब्धि में प्रबल बाधक प्रमाद बतलाया है | प्रमाद निजशक्तियों को आच्छादित करता है | अतः उस (प्रमाद) के अभाव में वे अनन्त शक्तियों विजयी हो जाती हैं ॥ ९ ॥
कषायरूपी कलंक अर्थात् कलुषता को अत्यन्त गाढ़ प्रयत्नों द्वारा दूर कर दिया तथा साथ ही साम्यभावामृत से प्रक्षालित कर उसे मूलतः स्वच्छ बना दिया । आज शीघ्र ही मेरा ज्ञानमण्डल स्पष्ट हो गया ।हे ईश-परमेश्वर! आपका आत्म तेज प्रकृष्ट रूप से प्रत्यक्ष हो रहा है | अभिप्राय यह है कि क्रोधादि कषायें गाढ कजल सदृश हैं जो ज्ञानरूपी दर्पण को अपनी कालिमा से आच्छादित कर देती हैं । साधक इन्हें अपने सत्पुरुषार्थ अर्थात् जिन प्रणीत विधि से नष्ट कर साम्यभाव रस से प्रक्षालित करे तो आत्मज्ञान प्रकट हो जाये | उसकी निर्मलकान्ति में लोकालोक व्याप्त हो जाते हैं ॥ १० ॥
- भगवन् | आप आत्मस्वरूपज्ञाता हो चैतन्य की एकमात्र धारा का आश्रय लिया | इस चिस्वरूप में एक लयता-एकत्वलीन हो रागरूपी दुष्कर रोग को नष्ट कर दिया । अर्थात् वीतरागभावस्थ हो राग रोग का क्षय किया । आपसे भिन्न मिथ्यामार्गी तो राग में रागी हुए उसे ही अपना स्वरूप