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चतुर्विशति स्तोत्र समतारस रक्षण करने में समर्थ नहीं है ? अवश्य सक्षम है । अतः आपकी दयादृष्टि ही मेरा संसार दुःखों से त्राण कर सकती है । यहाँ आचार्य श्री अपनी संसार भ्रमण की दुर्दशा से छुटकारा दिलाने वाली जिनेन्दभक्ति का ही समर्थ बता रहे हैं ।। ४ ॥
हे प्रभो आपके अनन्तज्ञानामृत की एक विन्दु मात्र का आकांक्षी आज मेरे परिणमन का हेतू होवे । यह परिणमन क्रमशः मेरे द्वारा मेरे ही ज्ञानानल के द्वारा सन्तप्त हो मधुर तेजस्वी पेय का रूप धारण कर सके । अर्थात् मैं भी आपके द्वारा प्रदर्शित प्रक्रिया द्वारा अपने आत्मीय अमीरस का आम्वार्दी बनूँ यही एक मात्र आकांक्षा हो || ५ ||
हे स्वामिन् ! निरन्तर अनवरत रूप से सम्यग्ज्ञान-भेद विज्ञान रूपी रसायन का पान करते हुए अन्तरंग और वाह्य सराग संयम अथवा क्षायोपशमिक भेदरूप संयम मेरा व्यवस्थित है । आपके आदर्शनीय सिद्धान्त का अनुसरण करने की विधि द्वारा सम्यक प्रकार से साधित किये जाने पर क्या आप ही के समान यथाख्यान चारित्र (संयम) ग्रहण द्वारा वैसा ही नहीं होगा ? निश्चय से अवश्यमेव हो ही जायेगा । आचार्यदेव अपनी अकाट्य श्रद्धा व्यक्त कर जिनदेव की स्तुति कर रहे हैं || ६ ||
हे विभो ! संख्यातगुणी कर्म निर्जरा की श्रृंखला को व्यतीत कर मैं संवमलब्धि स्थान के तेज में स्थित हुआ हूँ | इस स्थिति के होने पर भी निरन्तर अविच्छिन्न रूप से असंख्यातगुण श्रेणी निर्जरायुक्त श्रेणी आरोहण शिखामणि पद का आश्रय कितनी दूर है ? आपका स्वरूप कब प्राप्त हो सकेगा ? अभिप्राय यह है कि भगवान् मुझे भी आप के समान वीतराग अवस्था कब प्राप्त होगी ।। ७ ॥
हे विभो ! आपके अनेकान्त सिद्धान्त का ज्ञाता हो आपकी उत्तरोत्तर वृद्धिंगत हुची बीर्यशक्ति रूप सम्पदा प्राप्त कर अपनी ही आत्मतत्त्व रूपता रूप हो जाऊँ क्योंकि मेरा स्वरूप भी आप ही के समान है | योगी जन