________________
पतुर्णिमाति हलोत
:---
पाठ-७ संसार परिभ्रमण की पाँच वीथियाँ हैं । इन्हें आगम भाषा में पञ्चपरावर्तन कहते हैं यथा १. द्रव्यपरावर्तन २. क्षेत्र परावर्तन ३ कालपरावर्तन ४. भवपरावर्तन और ५. भावपरावर्तन । इनका उत्तरोत्तर अनन्त-अनन्त गुणा काल है । इन परावर्तों को अनन्तों बार घूम डाला । यह है संसार की महिमा, अभव्य की तो अनादि असीम है पर भव्य अनादि से इसे सादीसान्त कर सकता है | आप भगवन् अपने अबिचल व चैतन्य तेज में विश्रान्ति प्राप्त कर लिए । मैं भी उसी निज ज्ञानात्मक तेज म्वरूप में अब काललब्धि वशात् अनुरक्त होता हूँ । अर्थात् यह संसार भ्रमण से निकल मैं स्वरूपोपलब्धि में प्रवेश करता हूँ || १ ||
मेरी एक मात्र चैतन्य चित् कला, निश्शेषतः कषायों के संघर्षण में प्रयलशील हो जाय तो आपके विश्वविकासी या संसार को प्रकाशित करन वाले प्रकाश स्वरूप को कभी भी क्या उसे पाने में सक्षम नहीं होगी ? अर्थात अवश्य समर्थ होती ही है । प्रत्यनशील होने पर कृतकृत्यदशा प्राप्ति होती है । परमानन्द प्राप्त होता है ॥२॥
हे भगवन् मेरा उत्तम ज्ञान अनादि काल से सूक्ष्म लब्ध्य पर्याप्तक दशा में आच्छादित रहा मात्र अक्षर के अनन्तवें भाग प्रमाण मात्रा में प्रकाशित रहा । अत्यन्त पुरुषार्थ से प्राप्त क्षयोपशम से कुछ और अधिक प्रकाशित होता हुआ स्पृष्ट हुआ एवं कुछ असंस्पृष्ट रहा अर्थात् सम्यक्त्व युक्त हुआ । हे ईश ! आप में आपका ज्ञान तेज पूर्ण प्रकाशित है | वही तेज पुञ्ज अपने दयापूरित भाव से मुझ दयापात्र को दुख से उन्मुक्त करता है । अर्थात् आपकी करुण दृष्टि से ही मेरा रक्षण संभव है || ३ ।।
हे भगवन् आपने सम्पूर्ण संसार के दुःखों से व्याकुल पीड़ित प्राणियों को अपने अत्यन्त वात्सल्य रस से अभिसिंचित किया । मैं अपने अज्ञानतम से आच्छादित ज्ञान से अति नि:शक्त हो रहा हूँ | आपके उसी करुणा रस का पिपासु हूँ । इस प्रकार
'गाणन को हे ईश ! क्या वह