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चतुर्विंशति स्तोत्र
आपकी निरक्षरी सर्वाङ्ग से वाणी का प्रवाह प्रवाहित होता है | वह आपके अनन्त अद्भुत, सत्य तत्व प्रतिपादन के वैभव को जयशील बनाता है । अर्थात् अनादि अनन्त तत्त्वों के स्वरूप की परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रहता है । अपने ही आत्मस्वभावरूप यंत्र से नियंत्रित हुआ चैतन्य से जन्य चिदोद्गागार अपने में ही प्रकाश से प्रकाशित होता है । तरंगित होता रहता है ।। १५ ।।
अपने चैतन्य स्वभाव से परिपूर्ण अपने को ही स्पर्श करता हुआ भी अपने ही में व्याप्त रहता है | संसार स्वयं अपनी सीमा में अवस्थित है । कारण निज-निज स्वभाव पर स्वभाव द्वारा उल्लेषित नहीं किया जा सकता । हे जिन आपके सिद्धान्त में प्रत्येक तत्त्व अपनी सीमा में ही सीमित उपदिष्ट किया है | अभिप्राय यह है कि आपके चिद् स्वभाव में सर्व विश्व प्रतिबिम्बित होकर भी आप ध नहीं होता और न आपका पासव पर रूप होता है । यही वस्तु व्यवस्था है ॥ १६ ॥
आत्मस्वभाव अनन्य बाधित है । उसी को शाश्वतमयी भावों के भार से सम्पन्न शक्तियों से ज्ञान किरणें छूती हैं-प्रकाशित करती हैं । निश्चय नय से यही सिद्धान्त है । निज भाव से भिन्न जो कुछ भी है वह सब पर स्वरूप है । वह पर स्वभाव पर का ही है । आपके परम शुद्ध चैतन्य स्वभाव में वह किसी प्रकार भी कुछ भी विकार उत्पन्न नहीं कर सकता । आप तो अपने परम शान्त स्वभाव में ही रहते हैं ।। १७ ॥
हे परमेश्वर ! आपका नित्योदघाटित, पूर्ण प्रकाशित, ज्ञानोद्योत अत्यन्त विलक्षण है । अद्भुत हैं क्योंकि सर्वज्ञ-सर्वज्ञाता होते हुए भी कर्तृत्त्वभाव से सर्वथा शून्य हैं । अपने ही आत्मस्वभाव से परिपूर्ण भारत हुए कभी भी स्व शक्तियों से स्खलित नहीं होते हैं ।। १८ ।।