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आठवें गुणस्थान में ५८ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । ऊपरकी ५९ में से देवायुको घटानेसे ५८ प्रकृतियां बंधयोग्य रहती हैं ।
नववे गुणस्थान में २२ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । ऊपरकी ५८ मेंसे नीचे लिखीं ३६ व्युच्छिन्न प्रकृतियोंको घटानेसे २२ रहती हैं:- निद्रा, प्रचला, तीर्थकर, निर्माण, प्रशस्त विहायोगति, पंचेन्द्रियजाति, तैजस शरीर, कार्माण - शरीर, आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियक शरीर, वैक्रियक अंगोपांग, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, रूप, रस, गंध, स्पर्श, अगुरुलघुत्व, उपघात, "परघात, उद्भास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, हास्य, रति, जुगुप्सा और भय ।
दश गुणस्थान में १७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । ऊप-रकी २२ मेंसे पुरुषवेद, और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभको घटानेसे १७ रहती हैं ।
ग्यारहवें, बारहवें, और तेरहवें गुणस्थान में केवल एक सातावेदनीय प्रकृतिका बंध होता है । दशवेंमें जिन १७ प्रकृतियोंका बंध होता है, उनमेंसे ज्ञानावरणीयकी ५ दर्शनावरणीयकी ४, अन्तराय की ५, यशः कीर्ति, और उच्चगोत्र इन १६ को घटानेसे एक सातावेदनीय रह जाती है । अन्तके चौदहवें गुणस्थानमें किसी भी प्रकृतिका बन्ध नहीं star है । वह बंधरहित अवस्था है । इस तरह सब गुण