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(७८) नहीं जा सकता है । इससे अवगाह गुणका घात होता है । जिस प्रकार चित्रकार नानाप्रकारके चित्र बनाकर उनके जुदा जुदा नाम रखता है, उसी प्रकारसे नाम कर्म एकेन्द्रियादि नामवाले शरीर बनाता है । यह कर्म आत्माके सूक्ष्मत्व गुणका घात करता है । जिस प्रकारसे कुम्हार ऊँचे नीचे अर्थात् छोटे बड़े बर्तन बनाता है, उसी प्रकारसे गोत्र कर्म ऊँच नीच कुलमें जीवको उत्पन्न करता है । और जिस प्रकार भंडारी राजाको दान करनेसे रोकता है, उसी प्रकार अन्तराय कर्म दान लाभ भोग और उपभोगमें रुकावट करता. है । इन आठों कर्मोंका जिन्होंने हरण किया है, वे ही (सिद्धपरमेष्ठी ) हमको तारनेमें समर्थ हैं।
चौदह गुणस्थानों में सत्तावन आस्रव । पचपन अरु पचास तेतालिस, - छयालिस सैंतिस चौविस जान । बाइस ठाइस सोलह दस अरु,
नव नव सात अंत न बखान ॥ चौदै गुणथानकमैं इह विध,
आस्रवदार कहे भगवान । मूल चार उत्तर सत्तावन,
नास करौ धरि संवरग्यान ॥ ५९॥ अर्थ-पहले मिथ्यात्व गुणस्थानमें ५५ आस्रव होते हैं।