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(७७) चक्री ऊंच नीच धेरै भूप दीयो मैंने करै, .. एई आठ कर्म हरै सोई हमैं तारै है ॥५८॥
अर्थ-देवकी मूर्तिपर यदि कपड़ा पड़ा हुआ हो, तो जिस तरह उसका ज्ञान नहीं होता है-उसका रूप नहीं दिखता है, उसी प्रकार ज्ञानावरणी कर्मका परदा पड़नेसे
आत्माका ज्ञान गुण ढंक जाता है । जिस तरह दरवान अर्थात् पहरेदार राजाका दर्शन नहीं करने देता है, उसी प्रकार दर्शनावरणी कर्म आत्माके दर्शनगुणका दर्शन नहीं होने देता है । जिस तरह शहदमें लिपटी हुई तलवारकी धार चाटनेसे मीठी लगती है और साथ ही जीभको काट डालती है, उसी प्रकारसे वेदनी कर्म आत्माको सुखी, दुःखी करता है । यह कर्म आत्माके अव्याबाध गुणका घात करता है । जिस तरह शराब जीवोंपर मोहनीका अर्थात् वेहोशीका ( बावलेपनका) विस्तार करती है, उसी प्रकारसे मोहनी कर्म आत्माको मोहित कर डालता है । इस कर्मके संयोगसे जीव परपदार्थों में इष्ट तथा अनिष्टकी कल्पना करता है और तद्रूप आचरण करता है । अर्थात् इससे जीवके सम्यक्त्व और चारित्र गुणका घात होता है । जिस तरह चोरका पैर काठमें दे देनेसे वह काठ उसकी स्थिति करता है-उसको कहीं हिलने चलने नहीं देता है, उसी प्रकारसे आयु कर्म जीवकी भवभवमें स्थिति करता है। जब तक एक शरीरकी आयु पुरी नहीं हो जाती है, तब तक जीव दूसरे शरीरमें १ चकवाला अर्थात् कुंभार । २ घड़ता है-बनाता है। 3 रोकता है ।