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. (७६) संख्यासे अनन्त गुना और उत्कृष्ट वर्गणाका सिद्धजीवसं. ख्याके अनन्तवें भाग होता है । जिस तरह एक तरहके ग्रासका भोजन करनेसे परिपाकमें उससे रक्त, मांस, मज्जा, वीर्य आदि सात धातुएँ बनती हैं, उसी प्रकार मिथ्यात्व परिणामोंसे बांधी हुई. उक्त कर्मवर्गणाओंका सातकर्मरूप परिणमन होता है । इस लिये कोई जीव यों ही सहज मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है । क्योंकि इस तरह कर्मों का आवागमन बराबर होता रहता है । कर्म बराबर सत्तामें बने रहते हैं। जिसके हृदयमें आत्म शरीरादि संबंधी भेद-विज्ञान हो जाता है, वह समकिती जीव भेदज्ञानके बलसे प्रत्येक समय बंधकी अपेक्षा अधिक कर्मोंको क्षय करता है अर्थात् उसके बंध थोड़ा होता है और निर्जरा बहुत होती है, इसलिये वही, मुक्ति सुन्दरीका वरण करता है।
आठ कर्मोंके आठ दृष्टान्त । देवपै पस्यो है पट रूपको न ग्यान होय, जैसैं दरबान भूप-देखनौं निवारै है। सहत लपेटी असिधारा सुखदुखकार, मदिरा ज्यौं जीवनकौं मोहिनी बिथारै है। काठमें दियौ है पाँव करै थितिको सुभाव, चित्रकार नाना नाम चीतकै समारै है । १ विस्तृत करता है-मोहनीका विस्तार करता है । २ चित्रित करके-बना करके।