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ऊपर नीचे की तरफ वातबलयोंको छोड़कर चौदह राजूतक विस्तृत करता है । दूसरे समयमें किवाड़ सरीखे होते हैं जब कि वे प्रदेश दंडके बराबर चौड़ाई लिये हुए ही यदि पूर्वको मुंह हो तो दक्षिण उत्तरको और उत्तरको मुंह हो तो पूर्व, पश्चिमकी तरफ वातंबलयके सिवा लोकपर्यंत पसर जाते हैं। तीसरे समय में प्रतररूप होते हैं जब कि जो प्रदेश दूसरे समय में उत्तर दक्षिणकी तरफ शरीराकार बने रहे थे वे उत्तर दक्षिणकी तरफ भी वातबलयके सिवा लोक पर्यंत फैल जाते हैं और चौथे समयमें लोकपूर्ण हो जाते हैं अर्थात् सारे लोक व्याप्त हो जाते हैं । फिर पांचवें समय प्रतररूप, छठे समय में कपाटरूप और सातवें समय में दंडरूप होकर आठवें संकुचित होकर शरीर में समा जाते हैं । इन आठ समय में आत्मा के औदारिक कायादि कौन कौन योग होते हैं वे इस सवैया में बतलाये हैं: - जब आत्माके प्रदेश पहले समय में दंडरूप होते हैं और आठवेंमें संकुचित होते हैं, उस समय औदारिक काययोग होता है । दूसरे समय में जब कपाटरूप होते हैं और सातवेंमें कपाट अवस्था से संकुचित होते हैं तथा छठे समय में जब प्रतरका संवरण होता है, तब औदारिकमिश्र योग होता है । तीसरे समय में जब प्रतर रूप होते हैं, चौथेमें जब सारे लोकको पूर्ण करते हैं और पांचवेंमें जब लोकपूर्ण अवस्थाका संवरण करते हैं, तब कार्माण योग होता है । इस तरह आठ समयों में केवल -