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मध्यलोकके चैत्यालय।
प्पय ।
पंचमेरुके असी, असी वक्षार विराजें। गजदंतनपै बीस, तीस कुलपर्वत छाजै ॥ सौ सत्तर वैतार धार, कुरुभूमि दसोत्तर ।
इष्वाकार पहार, चार चव मानुषोत्रपर ॥ नंदीसुर बावनि रुचिकमें, चार चार कुंडल सिखर। इम मध्यलोकमै चारिस, ठावन बंदौं विघनहर ॥
अर्थ-मध्यलोकमें ४५८ अकृत्रिम जिनचैत्यालय हैं । उनका विवरण इस प्रकार है:-ढाई द्वीपमें पांच मेरुपर्वत हैं
और प्रत्येक मेरुपर सोलह सोलह चैत्यालय हैं । इस तरह पंचमेरुके ८० । एक एक मेरुके पूर्व पश्चिम विदेहक्षेत्रोंमें सोलह सोलह वक्षार पर्वत हैं और प्रत्येक पर्वतपर एक एक मन्दिर है । इस तरह सब वक्षार पर्वतोंके ८० । एक एक मेरु संबंधी चार चार गजदन्तपर्वत हैं । इनपर भी एक एक चैत्यालय है । इस तरह गजदन्तोंके २० । एक एक मेरुसंबंधी छह छह कुलाचल हैं; उनपर ३० । एक एक मेरुसंबंधी चौतीस चौतीस वैताढ्य पर्वत हैं, उनपर १७० । एक एक मेरुसम्बन्धी देवकुरु और उत्तरकुरु नामक दो दो भोगभूमियां हैं, वहांपर १०, इष्वाकार पर्वतपर ४, मानु. षोत्तर पर्वतपर ४, नन्दीश्वरदीपमें ५२, रुचिक द्वीपके रुचिक पर्वतपर ४ और कुंडलद्वीपके कुंडलगिरिपर ४,