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षदविधि मंगल। नमहुं नाम अरहंत, थुनहु जिनबिंब कलिलहर। परमौदारिक दिव्य बिंब, निर्वाण अवनिपर । कहहु कल्यानककाल, भजहु केवल गुणग्यायक। यह षटविधि निच्छेप, महा मंगल वरदायक ॥ मंगल दुभेद मल जाय गल, मंगल सुख लहै जीयरा यह आदि मध्य परजंतलौं, मंगल राखौ हीयरा ॥
अर्थ-१अरहंत भगवानका नाम लेकर नमस्कार करो (नाम निक्षेप), २ पापोंके हरण करनेवाले जिन भगवानके प्रतिबिम्बोंका स्तवन करो (स्थापना निक्षेप), ३ तीर्थकर भगवानके उत्कृष्ट औदारिक शरीरयुक्त दिव्य विम्बकी स्तुति करो (द्रव्य निक्षेप), ४ केवलियोंकी निर्वाण भूमियोंकोसम्मेदशिखर आदिको नमस्कार करो (क्षेत्रनिक्षेप), ५ भगवानके गर्भजन्मादि कल्याणक समयोंका कथन करो (कालनिक्षेप) और समस्त पदार्थोंका ज्ञायक जो केवलगुण . इस पद्यके जिन आदि विशेषण गोम्मटसार ग्रन्थके भी हो सकते है । इनमें और सब विशेषणोंका अभिप्राय तो स्पष्ट ही है, एक ‘गुणमणिभूषणउदयधर' में कुछ चौज़ है । 'गुणमाणिभूषण' नाम 'चामुंडराय ' का है । अर्थात् इन चामुंडरायके लिये जिसका उदय हुआ है, ऐसा गोम्मटसार ग्रन्थ ।
श्रीगोम्मटसार ग्रन्थमें आचार्य नेमिचन्द्रने जो सिद्धं सुद्धं पणमिय जिणिंदवर णेमिचंदमकलंक। . गुणरत्नभूसणुदयं जीवस्य परूवर्ण वोच्छं॥ . यह मंगलाचरण किया है, उसका उक्त छप्पयमें भावानुवाद है ।