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(६१) लालमाणिककी प्रभा जैसा है, मुनिसुव्रत और नेमिनाथका सांवला (नीलमणि सरीखा) है, जिसे देखकर देवों और. मनुष्योंका मन मोहित हो जाता है, और शेष १६ तीर्थ-. करोंका वर्ण सोनेकी कांतिके समान है । तीर्थंकरोंके शरीरकी यह स्तुति व्यवहारसे है । निश्चयसे विचार किया जाय, तो वे रूपरहित हैं, चैतन्यमय हैं, निर्मल हैं, और क्षायिकदर्शन क्षायिक ज्ञान और क्षायिकचारित्र (स्वरूपाचरण) संयुक्त हैं। * ___* चरचाशतककी अनेक प्रतियोंमें निम्नलिखित छप्पय और भी पाया जाता है। मालूम नहीं यह मूलका है या प्रक्षिप्त है,
गोम्मटसारका मंगलाचरण ।
छप्पय । वंदौं नेमिजिनेंद, नौं चौवीस जिनेसुर । महावीर वंदामि, वंदि सब सिद्ध महेसुर ॥ सुद्ध जीव प्रणमामि, पंचपद प्रणमौं सुख अति। .. गोमटसार नमामि, नेमिचंद आचारज निति ॥ जिन सिद्ध मुद्ध अकलंकवर, गुणमणिभूषण उदयधर ।
कहुं वीस परूपन भावसौं, यह मंगल सब विधनहर ॥४६॥ अर्थ-श्रीनेमिनाथ तीर्थंकरको नमस्कार है, चौवीसों तीर्थंकरोंको नमस्कार है, महावीर भगवानकी वन्दना कहता हूं, सम्पूर्ण सिद्ध महेश्वरोंकी वन्दना करता हूं, शुद्ध आत्माको प्रमाण करता हूं, पंचपदोंको अर्थात् पंचपरमेष्टीको प्रणाम करता हूं, गोम्मटसार ग्रन्थको नमन करता हूं और नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीको निरन्तर नमस्कार करता हूं। ये आठों, जिनको कि नमस्कार करता हूं कैसे हैं ?-जिन हैं, सिद्ध हैं, शुद्ध हैं, कलंकरहित हैं, वर (श्रेष्ठ) हैं और गुणरूपी माणियोंके भूषणोंको उदित करनेवाले हैं । इन सबको नमस्कार करके भावपूर्वक वीस प्ररूपणाओंका वर्णन करता हूं । इस वर्णनरूपी कार्यसे यह मंगल सच विघ्नबाधाओंका नाश करनेवाला होगा।