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(५५) दो दो नारकी सुदेव नौ विध मनुष्य बेव,
भोगभू कुभोगभू मलैच्छभू बताए हैं। दोय दोय दोय तीनि आरजमैं राजत हैं,
अठानवै दया करें साधु ते कहाए हैं॥४१॥ अर्थ-स्थावर और विकलत्रय ( दो इंद्रिय, ते इंद्रिय, चौ इंद्रिय ) जीवोंके ५१ भेद तो ४० वें पद्ममें कह चुके हैं, उनमें पंचेन्द्रिय जीवोंके ४७ भेद और मिलानेसे ९८ भेद हो जाते हैं । सो इस प्रकारसे, गर्भज जीवोंके पर्याप्त और अपर्याप्त (निवृत्ति अपर्याप्त ) ये दो, सम्मूर्छन पंचेन्द्रियों के पर्याप्त, अपर्याप्त, और अलब्धपर्याप्त ये तीन इस तरह पांच, फिर दोनोंके सेनी और असेनी भेद करनेसे हुए दश । ये दश भेद थलचारी पंचेन्द्रियोंके हुए । इसी प्रकारके दश दश भेद जलचारी और नभचारी पंचेन्द्रियों में भी होते हैं। सब तीस भेद कर्मभूमिके पंचेन्द्रिय जीवोंके हुए । भोगभूमिमें जलचर और सम्मृर्छन जीव नहीं होते हैं । केवल . गर्मज थलचारी और नभचारी होते हैं और इन दोनोंके पर्याप्त अपर्याप्त दो दो भेद होते हैं । इस तरह भोगभूमिके जीवोंके चार भेद हुए । देव और नारकियोंके भी पर्याप्त अपर्याप्तके भेदसे चार भेद होते हैं । मनुष्योंके नव भेद होते हैं-भोगभूमि, कुभोगभूमि और म्लेच्छखंडके मनुष्योंके पर्याप्त