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(४८) जीवके ८० प्रकृतियोंकी, (८५ में से आहारकचतुष्क और तीर्थंकरप्रकृति छोड़कर ), किसीके ८४ की (एक तीर्थकरप्रकृतिको छोड़कर ), किसीके ८१ की (आहारक चतुकको छोड़कर ) और किसीके ८५ प्रकृतियोंकी सत्ता रहती है, ३९ प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है, और ४२ प्रकृतियोंका उदय होता है । इस तरह तेरहवें गुणस्थानमें आश्रव, बंध, भाव, सामान्यसत्ता, विशेषसत्ता, उदीरणा और उदय ये सात त्रिभंगी होती हैं।
बंधदशक छप्पय । जीव करम मिलि बंध, देय रस तास उदै भनि । उद्दीरना उपाय, रहैं जब लौं सत्ता गनि ॥ उतकरसन थिति बढ़ें, घ★ अपकरसन कहियत। संकरमन पररूप, उदीरन बिन उपसम मत ॥
संक्रमण उदीरन बिन निधत, घट बढ़ उदरन संक्रमन । चहु बिना निकांचित बंध दस,
भिन्न आपपद जानिमन ॥ ३५॥ अर्थ-जीव और कर्मोंके मिलनेको बंध कहते हैं । अपनी स्थितिको पूरी करके कर्मोंके फल देनेको उदय कहते हैं । तप आदि निमित्तोंसे स्थिति पूरी किये विना ही कमौके फल देनेको उदीरणा कहते हैं । जबतक कर्म आत्माके साथ सम्बन्ध रखते हैं, तबतक उनकी सत्ता कहला