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(४०) बंध, उदय और सत्ता।
छप्पय ।
बंध एकसौ बीस, उदय सौ बाइस आवे । सत्ता सौ अड़ताल, पापकी सौ कहलावै ॥ पुन्यप्रकृति अड़सह, अठत्तर जीवविपाकी । बासठ देह-विपाकि, खेत भव चउचउ बाकी ॥ इकईस सरबघाती प्रकृति, देशघाति छब्बीस हैं। बाकी अघाति इक अधिकसत, भिन्न सिद्ध
सिवईस हैं ॥ २८ ॥ . अर्थ-आठों कर्मोंकी कुल १४८ प्रकृतियां हैं । इनमेंसे १२० प्रकृतियोंका बंध होता है, १२२ उदयमें आती हैं, सत्ता सबकी अर्थात् एकसौ अड़तालीसों प्रकृतिकी रहती है । पाप प्रकृतियां १०० हैं, पुण्यप्रकृतियां ६८ हैं, जीव. विपाकी ७८ हैं, देह वा पुद्गलविपाकी ६२ हैं, क्षेत्रविपाकी . ४ हैं, और भवविपाकी भी ४ हैं। सर्वघाती २१, देशघाती
२६ और अघाती प्रकृतियां १०१ हैं । आत्मा इन सबसे भिन्न शिवईश अर्थात् मोक्षका स्वामी है और सिद्ध है।
१ पाप और पुण्य प्ररुतियां मिलाकर १६८ हो गई और कुल प्ररुतियां १४८ ही हैं। फिर ये २० ज्यादा कैसे हो गई ? इसका समाधान यह है कि, ५ वर्ण, ५ रस, २ गंध, और ८ स्पर्श, ये २० प्ररुतियां पापरूप भी होती हैं और पुण्यरूप भी होती हैं, इसलिये दोनोंमें गिनी गई हैं।