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हैं । पुद्गलमें उदय आती हैं, अर्थात् पुद्गलमें इनका फल होता है, इसलिये इन्हें पुद्गलविपाकी प्रकृतियां कहते हैं । नरक आयु, तिर्यंच आयु, मनुष्य आयु और देव आयु ये चार प्रकृतियां भवविपाकी हैं । इनका विपाक वा फल भवमें होता है-इनके फलसे जीव संसारमें रुलता ह । नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और देवगत्यानुपूर्वी ये चार प्रकृतियां क्षेत्रविपार्क हैं । इनके फलसे विग्रह गतिमें अर्थात् भव धारण करनेके पहले जीवका आकार पहले सरीखा बना रहता है । इनका विपाक क्षेत्रमें अर्थात् विग्रहगतिरूप क्षेत्रमें अथवा आत्मक्षेत्रमें होता है । ज्ञानावरणीकी ५, दर्शनावरणीकी, ९ मोहनीकी २८, अंतरायकी ५, गोत्रकी २, वेदनीकी २, नाम कर्मकी २७ इस तरह ७८ प्रकृतियां जीवविपाकी हैं । पुद्गलविपाकी भवविपाकी आदि सब मिलाकर १४८ प्रकृतियां हो गई । इनका श्रद्धान करनेसे जीव पापसे मुक्त होता है ।
विशेष-नाम कर्मकी ९३ प्रकृतियां हैं, जिनमें एकेंद्री, दोइंद्रिय, तेइंद्रिय, चौइंद्री, पंचेन्द्रिय, नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति, प्रशस्तविहायोगति, अप्रशस्तविहायोगति, त्रस, स्थावर, वादर, सूक्ष्म, दुस्वर, पोत, अपर्याप्त, आदेय, अनादेय, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, यश:कीर्ति, अयश कीर्ति, श्वासोच्छास, और तीर्थकर, ये २७ प्रकृतियां जीवपिपाकी हैं, ४ क्षेत्रविपाकी हैं और बाकी ६२ पुद्गलविपाकी हैं।