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इम तोर करम अड़ताल सौ, मुकतिमाहिं सुख करत हैं । प्रभु हमहिं बुलावा आपटिंग, हम हू पाँयनि परत हैं ॥ २० ॥ अर्थ - यह जीव अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ और मिथ्यात्व मिश्र मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति इन सात प्रकृतियोंका क्षय चौथेसे सातवें अप्रमत्त गुणस्थान तक करता है अर्थात् क्षायक सम्यग्दृष्टी जीवके इन सात प्रकृतियोंकी सत्ता सातवें गुणस्थानसे आगे नहीं रहती । अप्रमत्त गुणस्थानके दो भेद होते हैं - एक स्वस्थान अप्रमत्त और दूसरा सातिशय अप्रमत्त । सातिशय अप्रमत्त वह कह लाता है जो श्रेणी चढनेके सन्मुख होता है । इस मोक्षगामी जीवके नरकायु तिर्यचायु और देवायुकी सत्ता नहीं होती हैं । नववे गुणस्थानमें ३६ प्रकृतियोंका क्षय करता है (देखो कवित्त ८२ ), दशवेंमें सूक्ष्मलोभको नष्ट करता है, बारहवें गुणास्थानमें ज्ञानावरणीकी ५, - मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल दर्शनावरणीक़ी ६, चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल, निद्रा और प्रचला, और अन्तरायकी ५, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य इस तरह सब मिलाकर १६ प्रकृतियोंका क्षय करता है । चौदहवें गुणस्थानके अन्तमें जब दो समय रह जाते हैं, तब पहले
१ यह कथन क्षपकश्रेणी चढ़नेवाले जीवको अपेक्षासे है । उपशमश्रेणीवाले उपशमसम्यक्त्वीके इन प्रकृतियोंकी सत्ता ११ वें गुणस्थानतक रहती है ।