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(८) हैं, मैं उन आचार्य, उपाध्याय और साधुओंका मनमें ध्यान
करता हूं और उन्हें मनाऊं हूं अर्थात् उनकी सत्कार पूज. नादि करता हूं । इन तीनोंको साधुका पद है अर्थात्
आचार्य उपाध्याय और साधु ये सब साधु कहलाते हैं। क्योंकि ये रत्नत्रयरूप मोक्षके मार्गको साधते हैं । ये संसार, देह और पंचेन्द्रियके विषयोंसे तो अतिशय विरक्त रहते हैं, परन्तु मोक्षसे राग रखते हैं । ध्यानकी आराधना करते हैं, गुणोंके सागर होते हैं, सुमेरु पर्वतके समान अविचल (अचल) होते हैं, और धीरजके साथ बड़ी बड़ी परीसहोंका सहन करते हैं । मैं उनके चरणोंको मन लगाकर नमस्कार करता हूं, जिससे मेरा मोक्षप्राप्तिरूप मनोरथ सफल हो । .
अलोक और लोकका स्वरूप । अचल अनादि अनंत, अकृत अनमिट अखंड सब अमल अजीव अरूप, पंच नहिं इक अलोक नभ॥ निराकार अविकार, अनंत प्रदेस विराजै। सुद्ध सुगुन अवगाह, दसौं दिस अंत न पाजै॥
१ दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार, और वीर्याचार इन पांच आचारोंको जो आप आचरण करें और दूसरोंको आचरण करावें, उन्हें आचार्य कहते हैं । २ जो ग्यारह अंग चौदह पूर्व आप पढ़ें तथा ओरोंको पढ़ावें, वे उपाध्याय हैं । ३ पांच इन्द्री और मनको वशमें करके मोक्ष मार्गको जो साधे, वे साधु हैं। ४ धर्मध्यान और शुक्लथ्यान । धर्मध्यानके चार भेद, आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचंय और संस्थानविचय । शुक्लध्यानके भी चार भेद,-पृथवत्ववितर्कवीचार, एकत्ववितर्कवीचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतिक्रियानिवृत्ति।