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या मध्यं लोक नभ तीन विध, - अकृत अमिट अनईसरौ ।
अविचल अनादि अनअंत सब,
- भाख्यौ श्रीआदीवरौ ॥ ६॥ · अर्थ-श्रीआदीश्वर भगवानने अर्थात् पहिले तीर्थंकर श्रीऋषभदेवने लोक अलोकका स्वरूप इस प्रकार कहा हैअलोकाकाश अचल है, अनादि कालसे है, अनन्त कालतक रहेगा, अकृत है अर्थात् उसे किसी ब्रह्मा आदि ईश्वरने नहीं बनाया है-स्वयंसिद्ध है, अनमिट है अर्थात् कोई महादेवादि उसका संहार नहीं कर सकते हैं-मिटा नहीं सकते हैं, अखंड है, सर्वत्र फैला है, निर्मल है, अजीव है अर्थात् चेतनारहित जड है, अमूर्तीक है, उसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये पांच द्रव्य नहीं हैं, गोल त्रिकोणा आदि किसी प्रकारका उसका आकार नहीं है, विकाररहित शुद्ध द्रव्य है, अनन्तानन्त प्रदेशोंसे शोभित है, शुद्ध है, अवगाहना वा स्थान देना यह जिसका असाधारण गुण है, और जिसका नीचे ऊपर पूर्व पश्चिम आदि दशों दिशाओंमें कभी अन्त नहीं आता है । इस महान् अलोकाकाशके बीचों बीच लोकाकाश है, जो ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोकके भेदसे तीन प्रकारका है । इस लोकको भी । किसीने रचा नहीं है, कोई मिटा नहीं सकता है, कोई इसका स्वामी नहीं है, अचल है, अनादि है और अनन्त भी है।