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वत्व, चेतनत्व, और अमूर्तत्व इन आठ निर्मल सामान्य: गुणों सहित हैं, निश्चयनयकी अपेक्षासे अपने ही प्रदेशों में विराजमान हैं, उत्कृष्ट सवा पांच सौ धनुषकी और जघन्य साढ़े तीन हाथकी अवगाहनावाले हैं, खंडासन या पद्मासनसे शोभित रहते हैं, और लोक तथा अलोकके समस्त पदार्थोंको जानते हैं । ऐसे सिद्धों को मैं नमस्कार करता हूं, जिससे मुझे भवभ्रमणका भय न रहे अर्थात् मुझे फिर संसार में रुलना न पड़े आचार्य उपाध्याय सर्व साधुकी स्तुति । आचारज उबझाय, साधु तीनों मन ध्याऊं । गुन छत्तीस पच्चीस बीस, अरु आठ मनांऊं ॥ तीनको पद साध, मुकतिको मारग साधें । भवतनभोग विराग, राग सिव ध्यान अराधे ॥ गुनसागर अविचल मेरु सम, धीरजसौं परिसह सहै. मैं नम पाय जुगलाय मन, मेरौ जिय वांछित लहै ५ अर्थ- जिनके क्रमसे छत्तीस, पच्चीस और अट्ठाईस गुण
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अमूर्त्तत्व - पुद्गल के स्पर्श आदि चार गुणोंसे रहित २ सिद्धान्त में ८४ आसन कहे हैं, परन्तु मोक्ष केवल खड्गासन और पद्मासनसे ही होता है ३ बारह तप, छह आवश्यक, पांच आचार, दश धर्म और तीन गुप्ति, सब छत्तीस गुण आचार्योंके होते हैं ग्यारह अंग और चौदह पूर्वका जानना येपच्चीस गुण उपाध्यायोंके हैं । ५ पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रियों क निरोध छह आवश्यक क्रियाएँ, बालोंका उखाड़ना, वस्त्रोंका त्याग (नम्नता ), स्नानत्याग, दन्तधावनत्याग, भूमिपर सोना, और खड़े खड़े एक बार अल्प आहार लेना; ये अट्ठाईस मूल गुण साधुओं के हैं ।