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अस्ति वस्तु परमेय, अगुरु लघु दरव प्रदेसी । चेतन अमूरतीक, आठ गुन अमल सुदेसी ॥
उत्तकृष्ट जंघन अवगाह, पदमासन खरगासन लसैं । सब ग्यायक लोक अलोकविध, नमौं सिद्ध भवभय नसें ॥ ४ ॥
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अर्थ-सिद्ध भगवान् तीनलोक के ईश्वर हैं, व्यवहारनय से तनुवातवलयके शीसपर अर्थात् अन्तमें जगत के ईश्वररूप में विराजमान हैं, द्रार्थिक नयकी अपेक्षा एक शुद्ध चैतन्यस्वरूप हैं, व्यवहार नयक़ी अपेक्षा सम्यक्ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहना, अगुरु लघु, और अव्न्याबाध इन आठ विशेष गुणरूप हैं, तथा अनन्तानन्त गुणोंसे शोभायमान हैं, अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, द्रव्यत्वं, प्रदेश
१ अस्तित्व—जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्यका कभी नाश नहीं हो । २ वस्तुत्व - जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्यमें अर्थक्रियाकारित्व होता है । जैसे घड़ेकी अर्थक्रिया जलधारण है । इस जलधारण क्रियाको घड़ेका वस्तुस्व कहेंगे । ३. प्रमेयत्व - जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्य किसी भी ज्ञानका विषय होता है । • अगुरुलघुत्व — जिसके निमित्तसे द्रव्यका द्रव्यत्व बना रहता है, अर्थात् एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप नहीं हो जाता है - एक गुण दूसरे गुणरूप नहीं हो जाता है और एक द्रव्यके अनन्त गुण विखरकर जुड़े जुड़े नहीं हो जाते हैं । ५ द्रव्यत्व - जिसके योगसे द्रव्यकी पर्यायें हमेशा पलटती रहती हैं । ६ प्रदेशवत्व – जिसके योगसे द्रव्यका कोई न कोई आकार अवश्य रहता है।