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हैं और उनसे अनन्तगुणे आगामी कालमें होवेंगे । इन सबको एक समय में जो जानता देखता है, उसे सर्वज्ञदेव कहते हैं |
कविका अन्तिम कथन ।
छप्पय ।
चरचा मुखसौं भनेँ, सुनें प्रानी नहिं कानन | केई सुनि घर जाहिं, नाहिं भाखें फिरि आनन ॥ तिनिक लखि उपगार, सार यह सतक बनाई । पढ़त सुनत है बुद्ध, सुद्ध जिनवानी गाई ॥ इसमें अनेक सिद्धांत कौं, मथन कथन द्यानत कहा। सबमाहिं जीवकौ नाव है, जीवभाव हम सरदहा ॥ १०३ ॥
अर्थ - शास्त्र सभादिमें मुंहसे यदि चर्चा की जाती हैशास्त्रकी बातें सुनाई जाती है, तो बहुतसे प्राणी कान लगाकर नहीं सुनते हैं और बहुतसे सुनकर घर चले जाते हैं- व्यापार धंधोमें फँस जाते हैं, इसलिये फिर कभी मुंहपर भी उसे नहीं लाते हैं । ऐसे लोगों का उपकार देखकर - यह समझकर कि इससे उनका लाभ होगा - वे इसे कंठ कर लेंगे, तो चरचाको नहीं भूलेंगे - यह साररूप चरचाशतक बनाया है । इसके पढ़ने सुननेसे बुद्धि बढ़ेगी । इसमें शुद्ध जिनवाणी कही गई है । इस चरचा शतकमें