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नहीं होते हैं और पीत, पद्म, शुक्ल लेश्या (शुभलेश्या ) पुरुषवेद, स्त्रीवेद ये पांच विशेष होते हैं । इस तरह ३३-४+५=३४ भाव देवगतिमें सामान्यतासे हैं । छहों लेझ्यावालोंके मिथ्यात्वगुणस्थानमें कौन कौन
कर्मोंका बन्ध होता है ? विकलत्रै सूच्छम साधारन अपर्जापत, नरकगति आनुपूर्वी नरक आव हैं। मिथ्यामाहिं लेस्या तीनि बांध इकसौ सतरै, नव बिना पीतकै अठोत्तरसौ भाव हैं। एकेंद्री थावर औ आतप इन तीनि बिना, पदम एकसौ पांच बंधकौं उपाव हैं। पसूगति आव आनुपूरवी उदोत चारि बिना, सुकल सौ एक बांधैं पुन चाव हैं॥९५॥
अर्थ-मिथ्यात्व गुणस्थानमें कृष्ण नील और कापोत इन तीन लेश्यावाले जीव ११७ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं ( देखो ६० वें पद्यकी टीका ) । इनमेंसे विकलत्रय (दोइंद्रिय, तेइंद्रिय, चौइंद्रिय ), सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त नरक गति, नरकगत्यानुपूर्वी और नरक आयु इन ९ प्रकृतियोंको छोड़कर बाकी १०८ प्रकृतियोंका बन्ध पीत लेश्यावाले करते हैं । एकेन्द्रिय, स्थावर और आतप इन तीनको छोड़कर (१०८ मेंसे ) १०५ प्रकृतियोंका बंध,