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(१३८) एते छहौं भाव बिना नारक तेतीस हैं। हीन तीन लेस्या पंढवेद चारि भाव नाहि, सुभलेस्या नरनारि सुरकै चौंतीस हैं॥९४॥ अर्थ-क्षायिकदर्शन, क्षायिकज्ञान, क्षायिकसम्यक्त्व, अनन्तबल और जीवत्व ये पांच भाव सिद्ध भगवानके शाश्वत स्वभाव हैं । अर्थात् उनके ये पांच भाव सदा अविनाशी हैं । ऐसे सिद्धोंकी मैं बन्दना करता हूं । नरकगति, तिर्यंचगति, और देवगति इन तीनऔदयिक भावोंके विना बाकी ५० भाव मनुष्यगतिमें सामान्यतासे हैं । क्षायिकभाव ९ हैं, उनमेंसे सम्यक्त्वको छोड़कर ८ भाव, मनःपर्ययज्ञान, और दो चारित्र अर्थात् उपशम चारित्र और क्षयोपशमिक चारित्र इस तरह ११ भावोंको छोड़कर ( त्रेपनमेंसे नरक, देव और मनुष्य इन तीनके छोड़नेसे बाकी रहे जो ५० भाव उनमेंसे) बाकी ३९ भाव तिर्यंचगतिमें होते हैं । पीत, पद्म, शुक्ल ये तीन शुभलेश्या, और पुरुषवेद, स्त्रीवेद, देशव्रत इस तरह छह भावोंको छोड़कर (३९ मेंसे' ) बाकी ३३ भाव नरक गतिमें होते हैं । कृष्ण, नील, कापोत ये तीन हीन लेश्या अर्थात् अशुभलेश्या और नपुंसकवेद ये चार भाव ( ३३ मेंसे ) देवगतिमें
(१) तिर्यच गतिमें ३९ भाव दिखाते समय जिस तरह नरकगतिको कम किया है उसी तरह यहांपर नरकगतिके भाव दिखलाते समय तिर्यच गति घटानी चाहिये । बाकी १३ भाव उपर्युक्त ही कम होते हैं । इस तरह उक्त । ९ मेंसे ६ भाव घटाकर 33 भाव रक्खे गये हैं।