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भोग, वीर्य), अज्ञान, चक्षदर्शन और अचक्षुदर्शन ये आठ भाव, तेरहवें तक शुक्ल लेश्या यह एक और चौदहवें तक मनुष्यगति, भव्यत्व, जीवत्व और असिद्धत्व ये चार भाव होते हैं । इस तरह ये ३४ भाव क्रमसे चौदह गुणस्थानों में बतलाये अर्थात् यह बतलाया कि किन किन गुणस्थानोंमें किन किन भावोंकी व्युच्छित्ति होती है ? जिस गुणस्थानमें जिस भावकी व्युच्छित्ति कही हो, उस गुणस्थानसे ऊपर वह भाव नहीं रह सकता । इस लिये यहांपर जिस गुणस्थान तक जो भाव कहा हो वह भाव उससे पूर्वके गुणस्थानोंमें तो यथासंभव मिल सकता है। परंतु उसके ऊपरके गुणस्थानमें वह भाव सर्वथा नहीं रह सकता । इनके सिवा १९ भाव बारह गुणस्थानों में बतलाये हैं । (देखो आगेका सवैया) मैं इन सब भावोंसे जुदा विकाररहित हूं। क्योंकि, कर्मरूप परवस्तुके योगसे ये सब विकार उपजते हैं । शुद्ध आत्मामें इन भावोंकी कल्पना नहीं है।
बारह गुणस्थानों में उन्नीस भाव । उपसम चौथै ग्यारै वेदक है चौथै सातै, छायक है चौथें चौ. देशव्रत पांच मैं । ग्यान तीनि तीजै बारें, मनपर्जे छ? बारें, चारित सराग छ? दसैं कह्यौ सांचमैं ॥
औधि तीजै बारें, उपसम चारित ग्यारे ही, छायक चारित बारें चौर्दै कर्म वाचमैं ।