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(१३२) स्वर्गऋद्धिके करनेवाले हैं; परन्तु इनके होते हुए यथाख्यात चारित्र नहीं हो सकता है ।
चौदह गुणस्थानों में चौतीस भावोंकी व्युच्छित्ति । पहलै मिथ्या अभव्व दूसरे विभंग तीनि, लेस्या तीनि अव्रत नरक देव चारमैं । पसु पांचैं लेस्या दोय सातै लोभ दसैं लग, क्रोध मान माया तीनि वेद नौ विचारमैं ॥ सेत तेरै नर भव्व जीवत असिद्ध चौदें, पंचलब्ध अग्यान चछ अचछ बारमैं । चौतीसौं भाव कहे चौदह गुनथानकमैं, वे (?) उनीस बारहमैं मैं हौं अविकारमैं॥९॥ अर्थ-पहले मिथ्यात्व गुणस्थानतक मिथ्यात्व भाव और अभव्य भाव ये दो भाव, दूसरे गुणस्थान तक कुमति कुश्रुत और कुअवधि ये तीन विभंग भाव (क्षायोपशमिक), चौथे गुणस्थान तक कृष्ण, नील और कापोत ये तीन लेश्या तथा अव्रत (असंयम ) नरकगति और देवगति इस प्रकार छह भाव, पांचवें गुणस्थानतक पशु अर्थात् तिर्यंचगति यह एक, सातवें तक पीतलेश्या और पद्मलेश्या ये दो भाव, नववें तक क्रोध मान माया और पुरुषवेद स्त्रीवेद नपुंसकवेद ये तीन वेद इस तरह छह भाव, दशवें तक सूक्ष्म लोभ यह एक, बारहवें तक पांच लब्धियां (दान, लाभ, भोग, उप