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अप्रत्याख्यानी मान हड्डीके स्तंभके समान है-नब सकता है। परन्तु मुश्किलसे । अप्रत्याख्यानी माया, जिसतरह मेंढेके सींग साधारण टेढ़े और लड़ने में घिसघिसकर कम होते हैं उसी तरह टेढ़ी और धीरे धीरे कम होती है । अप्रत्याख्यानी लोभ गाड़ीके ओंगनके रंग समान है-कठिनाईसे छूट सकता है । ये चार कषाय सम्यक्त्व घात तो नहीं करते हैं, परन्तु व्रत अणुमात्र भी ग्रहण नहीं करने देते हैं और जीवको तिर्यंच गतिमें ले जाते हैं । प्रत्याख्यानी क्रोध गाड़ीके चकेकी लकीरके समान होता है-अधिक समय तक नहीं ठहरता है । प्रत्याख्यानी मान लकड़ीके स्तंभके समान होता है-प्रयत्न करनेसे नब सकता है । प्रत्याख्यानी माया गोमूत्रके समान कम टिदाई लिये होती है । प्रत्याख्यानी लोभ शरीरके ऊपर जो मैल लग जाता है, उसके समान होता है-शीघ्र छूट जाता है । ये चारों कषाय महाव्रत धारण नहीं करने देते हैं और इन कषायोंसे भरे हुए जीव प्रायः मनुष्य गतिमें जन्म पाते हैं । ये प्रत्याख्यानी कषाय एक बारके उत्पन्न हुए अधिकसे अधिक १५ दिनतक रहते हैं। संज्वलन क्रोध पानीकी लकीरके समान है-तत्काल ही नष्ट हो जाता है । संज्वलन मान बेतकी छड़ीके समान है, जो थोड़ेसे प्रयत्नसे ही लच जाती है । संज्वलन माया खुरपाक समान है-उसमें थोड़ीसी ही टिढ़ाई रहती है और सज्वलन लोभ हलदीके रंग समान है-बहुत सुगमतासे मिट जाता है। ग्रन्थकर्ता द्यानतराय कहते हैं कि ये चार कषायभाव