________________
(१३०) कृमिरंग सम, चारौं नर्कमाहिं ले धरै । हललीक हाइथंभ मेषसींग गाड़ीमल, क्रोध मान माया लोभ तिरजंचमैं परें ॥ रथलीक काठथंभ गोमूत देहमैलसे, कषाय भरे जीव मानुषमैं अवतरै । जलरेखा वेतदंड खुरपा हलदरंग, द्यानत ए चारि भाव सुर्गरिद्धिकौं करें॥८९॥
अर्थ-क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायोंके परिणामोंकी तीव्रता मन्दताके अनुसार १६ भेद होते हैं । उन सबके क्रमसे दृष्टान्त तथा फल कहते हैं:-अनन्तानुबन्धी क्रोध पत्थरकी लकीरके समान अनन्त काल तक ठहरता है-बहुत ही कठिनाईसे नष्ट होता है । अनन्तानुबन्धी मान पाषाणके खंभके समान अनन्त काल तक सीधा ज्योंका त्यों बना रहता है-सहज ही नहीं नबता है। अनन्तानुबन्धी माया बांसके भिड़ेके समान बहुत ही टेढ़ी मेढ़ी रहती है-और अनन्तानुबंधी लोभ कृमिरंग अर्थात् लाखके रंगके समान बहुत ही पक्का होता है-अनन्तकालतक बना रहता है-शीघ्र नहीं धुलता। ये चारों कषाय सम्यक्त्वको नहीं होने देते हैं और जीवको नरक गतिमें ले जाते हैं । अप्रत्याख्यानी क्रोध खेत जोतनेसे जैसी हलकी लकीर बन जाती है, उसके समान छह महीना तक रहता है।