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(१३४) पंचलब्धि छायक दरस ग्यान तेरें चौदें,
नौं भाव उनईस छूटौं नर्क आंचमैं ॥९१॥ अर्थ-उपशम सम्यक्त्व चौथे गुणस्थानसे लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक होता है । वेदक सम्यक्त्व चौथेसे सातवें गुणस्थानतक होता है और क्षायिक सम्यक्त्व चौथेसे चौदहवें तक पाया जाता है । देशत्रत भाव पांचवें ही गुणस्थानमें होता है । मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान तीसरे गुणस्थानसे लेकर बारहवें तक, मनःपर्जय ज्ञान छठेसे बारहवें तक और सराग चारित्र छठेसे दशवें तक कहा है। अवधि दर्शन तीसरेसे बारहवें तक होता है । उपशम चारित्र एक ग्यारहवें गुणस्थानमें ही होता है । क्षायिक चारित्र बारहवेंसे लेकर चौदहवें गुणस्थानतक पाया जाता है । पांच लब्धि, क्षायिक दर्शन (केवल दर्शन) और केवल ज्ञान ये ७ भाव तेरहवें चौदहवें गुणस्थानमें होते हैं । इस तरह (पहिले दूसरेको छोड़कर) बारह गुणस्थानोंमें १९ भाव होते हैं । इन भावोंको मैं नमस्कार करता हूं, जिससे मैं नरकोंकी आंचसे छूट जाऊं-बच जाऊं। यदि पहले आयुबंध न हुआ हो, तो इन भावोंके होनेपर फिर नरकादिके दुःख नहीं सहना पड़ते हैं।
ये १९ भाव घाति कर्मोंका क्षयोपशमादि होनेसे ही होते हैं । इनके कहने में व्युच्छित्ति होनेका या दिखानेका वक्ताका अभिप्राय नहीं है।