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. (१२५) । है। पांचवें गुणस्थानतक ग्यारह अविरतोंसे (पांच इंद्रिय छहे. मनकी स्वच्छन्दता और पांच थावरोंकी विराधनासे) और प्रत्याख्यानी क्रोध मान माया लोभ इन चारसे; इस तरह पन्द्रहोंसे आस्रव होता है । चौथे गुणस्थानतक वैक्रियिक, वैक्रियिक मिश्र, अप्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया, लोभ, और त्रसवध इन सातोसे छठे गुणस्थानमें आहारक और आहारक मिश्र इन दोसे; आठवेंतक हास्यादि छहसे अर्थात् हास्य, रति, अरति, शोक, भय, और जुगुप्सासे; नववेंतक स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद ये तीन वेद और संज्वलन क्रोध मान माया ये तीन संज्वलन कषाय इस तरह छहसे; दशतक लोभसे, बारहवेंतक असत् वचन, उभय वचन, असत् मन, उभय मन इन चार योगोंसे और तेरहवेंमें सत् वचन, अनुभय वचन, सत् मन, अनुभय मन ये चार मनवचनयोग और औदारिक, औदारिक मिश्र और कार्माण इन सातोंसे आस्रव होता है। ___ औदारिक मिश्र योग और कार्माणयोग चार गुणस्थानों में अर्थात् पहले, दूसरे, चौथे और तेरहवें गुणस्थानों में होते हैं।
चौदह गुणस्थानोंमें चारों आयुओंका बंध और उदय । नरक आव पहलैं बँधै उदय चौथे लौं, पसू आव दूर्जें बंध उदै पांचमैं कही। नर आव चौथे लग बंध उदै चौदहलौं, सुर आव सारौं बंध उदै चारिमैं लही ॥