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गूंथी थी, उसीको जिनवाणी कहते हैं । उसमें १६३४८३०७८८८ अक्षर हैं । ५१०८८४६२१३ श्लोक हैं और उसके पद एकत्र किये जावें, तो वे ११२८३५८००५ होते हैं । इन सब पदोंकी समूहरूप जिनवाणीकी जी लगाकर बन्दना करनेसे भेदज्ञानकी वृद्धि होती है।
चौदह गुणस्थानोंमें कर्मोंका आस्रव । पहलैं पांचौं मिथ्यात दूर्जे अनंतानुबंधी, ग्यारै अविरत प्रत्याख्यानी पांचैं गहे। वैक्रियक औ अप्रत्याख्यानी त्रसबध चौथें, आहारक छ? षट हास्य आठलौं लहे ॥ तीनि वेद तीनि संजुलन न लोभ दसैं, असत उभै वचन मन बारहैं कहे । सत अनुभय वच मन औदारिक तेरें मिस्र कारमान चारगुनथा. सरदहे ॥८५॥
अर्थ-पहिले गुणस्थानतक एकान्त, विनय, विपरीत, संशय और अज्ञान इन पांच मिथ्यात्वोंसे आस्रव होता है-आगे इनका आस्रव नहीं होता । दूसरे गुणस्थानतक अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया और लोभसे आस्रव होता
१ उक्तं च-कोटी शतं द्वादशं चैव कोट्यो लक्षाण्यशीतिरन्यधिकानि चैव ।
पञ्चाशदष्टौ च सहस्रसंख्यमेतच्छ्रतं पञ्चपदं नमामि ॥