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पंचम ग्यारम सात गुन, मरै सुरगमैं औतरै । बंदों इक चौदस थान तजि, अजर अमर सिवपद वरै ॥ ८२ ॥
अर्थ- तीसरे मिश्रगुणस्थानमें, बारहवें क्षीणकषायमें और तेरहवें सयोगकेवली गुणस्थानमें जीव मरण नहीं पाता है, यह नियम है। सातवें, आठवें, नववें, दशवें और ग्यारहवें गुणस्थान से यदि जीव मरण करता है, तो चौथे गुणस्थान में आता है अर्थात् मरण समय अवतरूप होकर कार्माण योग धारण करता है और देवगतिको प्राप्त होता है । ( देशविरत और प्रमत्तविरत गुणस्थान से भी मरतेसमय चौथे गुणस्थान में आजाता है ) ।
पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में मरा हुआ जीव चारों गतियोंमें जाता है; परन्तु देवगतिमें नवग्रैवेयक तक ही जाता है । दूसरे गुणस्थानमें मरकर नरक को छोड़कर शेष तीन गतियोंमें अर्थात् तिर्यच मनुष्य और देवगति में जाता है । चौथे गुणस्थान में मरण करके जीव, पूर्वमें
१ इसमें इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी उत्पत्ति से पहले यदि नरकांयुका बन्ध हो चुका है फिर सम्यक्त्वसहित ही मरण हो, तो पहले नरकतक ही जाता. है- आगे नरकों में नहीं जता है । इसके सिवाय यदि पहले निर्यचगतिका बंध किया हो, और पीछे सम्यक्त्व ग्रहण करके मरे, तो उत्तम भोगभूमिका तिर्यच होवे । तथा मिथ्यात्व गुणस्थान में देवगतिका बन्ध किया हो, पीछे सम्यक्त्व ग्रहण कर मरे, तो स्वर्ग में ही उपजे - पातालवासी, ज्योतिषी, और व्यन्तरों में उत्पन्न न होवे | यदि सम्यक्त्व ग्रहण करनेके पहले किसी आयुका बंधन किया हो, तो वह मरकर बड़ा देव हो- अन्यगतिमें न जाय और सोभी बड़ी ऋद्धिका धारक हो ।