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(१११) सागरका; मनुष्यगति तिर्यंचगतिका जघन्य आयु अन्तर्मुहर्तका और उत्कृष्ट आयु तीन पल्यका है । इन चारों गतियोंका जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट तक आयु क्रमपूर्वक धारण करनेमें आयुके जितने भेद हो. सकते हैं, उन सबको यथाक्रम पूर्ण करनेमें जितना समय लगता है, उसे एक भवपरावर्तनका काल समझना चाहिये । इस भवपरावर्तनके कालसे अनन्तवाँ भाग काल कालपरावर्तनका है । बीस कोड़ाकोड़ीसागरका एक कल्पकाल होता है । इसकालके जितने समय हैं, उन सब समयोंमें क्रमसे जन्म मरण धारण करनेको एक कालपरावर्तन कहते हैं । इस कालपरावर्तनके कालसे अनन्तवां भाग काल क्षेत्रपरावर्तनका होता है । क्षेत्र परावर्तन दो प्रकारका है, एक स्वक्षेत्रपरावर्तन और दूसरा परक्षेत्र परावर्तन | सूक्ष्मनिगोद लब्ध्यपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना घनांगुलके असंख्यातवें भाग है और महामच्छकी उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन लम्बी, पांचसौ योजन चौड़ी और अढाईसौ योजन ऊंची है । सो उक्त जघन्य अवगाहनासे लेकर उत्कृष्ट अवगाहना तक क्रमसे एक एक प्रदेश अधिक अवगाहनाके शरीरको लेकर जन्म मरण
१ यहांपर यह विशेषता है कि नरक गतिमें तो 33 सागरकी उत्कृष्ट आयुष्य ली जाती है; परंतु देवगतिकी उत्कृष्ट न लेकर केवल ३१ सागरतककी लेनी चाहिये । क्योंकि नवग्रैवेयकसे उपर जो 31 सागरसे अधिक आयुण्यवाले देव होते हैं, वे सब सम्यग्दृष्टि ही होते हैं और इसी कारण दो सागरके जितने समय होते हैं उतने बार उन्हें फिर संसार में जन्म धारण करनेका प्रसंग प्राप्त नहीं होता।