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उदय चौदहवें गुणस्थान तक है ।
दुर्भग, दुःस्वर, अनादेयका बंध दूसरे गुणस्थान तक और उदय दुर्भग अन देयका चौथेतक दुस्वरका तेरहवें गुणस्थान तक है ।
तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध चौथे गुणस्थानसे आठवेंके छ -भाग तक और उदय तेरहवें से चौदहवें गुणस्थान तक है । पंचपरावर्तनका स्वरूप ।
भाव परावर्तन अनंत भाग भवकाल, भव परावर्तन अनंत भाग काल है । काल परावर्तन अनन्त भाग खेत कह्यौ, खेतको अनन्त भाग पुग्गल विसाल है || ताकौ आधौ नाम अर्ध पुग्गल परावर्तन, फिर रह्यौ है याहि ग्यानी ग्यान भाल है । ताही समै सम्यक उपजिवेकौ जोग भयो, और कहा समकित लरकौंका ख्याल है ॥ ७६ ॥ अर्थ- कर्मबंधोंके करनेवाले जितने प्रकार के भाव हैं, उन सबको मिथ्याती जीव क्रमपूर्वक जितने समय में अनुभव करता है उतने कालको एक भावपरावर्तन काल कहते हैं । इस भावपरावर्तनका जितना काल है, उसका अनन्तवां भाग काल भवपरावर्तनका है । नरकगति तथा देवगतिका जघन्य आयु दशहजार वर्षका और उत्कृष्ट आयु वेतीस