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(१०६) हास रति भै गिलानि नर-वेद नर-आव, सूच्छम अपर्जापति साधारण धार हैं। आतप मिथ्यात ए छबीस बंध उदै साथ, नीचें बंध ऊंचें उदै छीयासी विचार हैं ॥७५॥ . अर्थ-देवगति, देवायु, और देवगत्यानुपूर्वी, ये तीन; वैक्रियक शरीर, वैक्रियक अंगोपांग, आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग ये चार और अजस; सब मिलाकर हुई आठ प्रकृतियां । ये आठौं ऊपरके गुणस्थानों में बंधती हैं और नीचेके गुणस्थानोंमें उदय आती हैं । संज्वलन लोभको छोड़कर १५ कषाय अर्थात् अनंतानुबंधी क्रोध मान माया लोभ, अप्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ, प्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ और संज्वलन क्रोध मान माया ये पन्द्रह और हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, पुरुषायु, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, आतप, और मिथ्यात्व ये ग्यारह इस तरह २६ प्रकृतियां जिस गुणस्थानमें बंधती हैं, उसीमें उदय आती हैं । इन २६+८=३४ प्रकृतियोंको छोड़कर शेष जो ८६ प्रकृतियां हैं, उनका बंध नीचेके गुणस्थानोंमें होता है और उदय ऊंचेके गुणस्थानों में होता है। ___ हुंडकका पहले गुणस्थानमें, वामन, कुब्जक, स्वातिक, और न्यग्रोधपरिमंडलका दूसरे गुणस्थान पर्यन्त, और समचतुरस्रका आठवें गुणस्थानके छठे भाग पर्यन्त, बन्ध होता है । परन्तु उदय इन छहों संस्थानोंका तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त होता है।