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(८७) अंगोपांग, तैजस शरीर, कार्माण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, न्यग्रोध, स्वाति, कुब्जक, वामन, हुंडक, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, अगुरुलघुत्व, उपघात, परघात, उच्छास और प्रत्येक । वे बारह प्रकृतियां ये हैं:-वेदनीय, मनुष्यगति, मनुष्यायु, पंचेंद्रियजाति, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश:कीर्ति, तीर्थकर और उच्चगोत्र । इस तरह चौदह गुणस्थानोंकी रचना है । निश्चयसे तेरा निज आत्मा इन सब कर्मोंके उदयसे भिन्न सिद्धस्वरूप है।
___ चौदह गुणस्थानोंमे १२२ प्रकृतियोंकी उदीरणा । इक सौ सतरैइक सौ ग्यारे,सौ सौ चौ सत्तासीजान। इक्यासी तेहत्तार उनहत्तरि तेसठि सत्तावन मान॥ छप्पन चौवन उनतालिस तेरमैं अंत नाही परवान। यह उदीरणा चौदैथानक, करै ग्यानबल सो तू जान ___ अर्थ-६१ वें कवित्तके अर्थमें चौदह गुणस्थानों में जितनी जितनी प्रकृतियोंका उदय बतलाया है, ठीक उतनी उतनी ही प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है और वह इस कवित्तमें बतलाई गई है । अन्तर सातवें, आठवें, नववें, दशवें, ग्यारहवें और बारहवें में केवल ३ प्रकृतियोंका पड़ता है और तेरहवेमें ९ का । वह इस तरहसे कि वहां सातवेंमें ७६ प्रकृतियोंका उदय होता है, और यहां ७३ की उदी. रणा होती है । क्योंकि चौदहवें गुणस्थानमें उदय तो १२ प्रकृतियोंका रहता है, परन्तु उदीरणा वहां नहीं है । इस