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________________ पर समस्त शोभासहित, मुक्तिवधू के कंत सीमंधर भगवान आसीन हैं। उनके मस्तक (शिर) पर तीन छत्र चमक रहे हैं, श्रेष्ठ चैवर दुराए जा रहे हैं, उस सुन्दर छवि पर करोड़ों कामदेव न्यौछावर हैं। ( वहाँ स्थित ) अशोक वृक्ष को देखते ही सब शोक दूर हो जाते हैं, बादलों की गरज सी दिव्य ध्वनि से अमृत वचन झर रहे हैं। जहाँ सुन्दर सुगन्धित फूलों की वृष्टि हो रही है, दुंदुभिनाद से गुंजित उस वातावरण में सूर्य को प्रखरता व चन्द्रकांति को लजानेवाला प्रभु का अत्यन्त तेजयुत दिव्य-गात ( शरीर) सुशोभित है। उस समवशरण को निराली छटा व व्यवस्था का वर्णन यह बुद्धि नहीं कर पाती क्योंकि सब ही दैविक (अलौकिक ) लक्षण हैं जो देखते ही बनते हैं। देव और मनुष्य सब मिलकर उनकी पूजा हेतु सदा आते हैं और उनको भक्तिपूर्वक निहारते हैं । वे लोग धन्य हैं, बड़े भाग्यशाली हैं। भूधरदास कहते हैं कि मैं उस नगरी को भाव- प्रदक्षिणा देता हूँ। वह जिनेन्द्र की नगरी ( समवसरण ) सदा जयवंत हो। वारणें = द्वार पर माथै ३६ = मस्तक पर । रतिपति = कामदेव । विरख = वृक्ष | भूधर भजन सौरभ
SR No.090108
Book TitleBhudhar Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size2 MB
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