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राग सोरठ मेरे मन सूवा, जिनपद पींजरे वसि, चार लाव न बार रे ।। टेक ।। संसार सेंवलबुच्छ सेवत, गयो काल अपार रे। विषय फल तिस तोड़ि चाखे, कहा देख्यौ सार रे ॥१॥ तू क्यों निचिन्तो सदा तोकों, तकत काल मंजार रे। दावै अचानक आन तब तुझे, कौन लेय उबार रे ॥२॥ तू फस्यो कर्म कुफन्द भाई, छुटै कौन प्रकार रे। तैं मोह-पंछी-वधक-विद्या, लखी नाहिं गंवार रे ॥३॥ है अजौं एक उपाय 'भूधर', छुटै जो नर धार रे। रटि नाम राजुल-रमन को, पशुबंध छोड्नहार रे॥४॥
तोते के समान चंचल ऐ मेरे मन! तू जिनेन्द्र के चरणकमलरूपी पिंजरे में हो निवास कर, उससे बाहर मत आ। बाहर तो इस संसाररूपी सेमल वृक्ष की सेवा -संभाल करते-करते बहुत काल व्यतीत कर दिया, जिसके विषयरूपी फलों को तोड़कर चखने पर उसमें कुछ भी रस-सार नहीं दीखा। काल (मृत्यु) की दृष्टि सदैव तुझ पर है, उसके बीच तू क्यों व कैसे निश्चित हो रहा है? वह अचानक ही आकर जब तुझे दबोचेगा, तो कोई भी तुझे उससे छुटकारा नहीं दिला सकेगा।
तू मोहवश निरर्थक व छोटे कर्मों के जाल में उस मूर्ख-नादान पंछी की भांति फँस रहा है, तुझको कालरूपी शिकारी की चाल व मारक विद्या का बोध ही नहीं है, तब तू कैसे उससे छूटेगा?
हे नर! संसाररूपी जाल से छूटने का एक ही उपाय है। भूधरदास उसे बतलाते हुए कह रहे हैं कि राजुलरमन भगवान नेमिनाथ के नाम का स्मरण कर, जो बंध से जकड़े पशुओं का भी उद्धार करनेवाले हैं।
भूधर भजन सौरभ