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________________ (१८) राग ख्याल जग में जीवन थोरा, रे अज्ञानी जागि।।टेक॥ जनम ताड़ तरुतें पड़े, फल संसारी जीव। मौत महीमैं आय हैं, और न ठौर सदीव ।। १॥जगमें. ।। गिर-सिर दिवला जोइया, चहुं दिशि बाजै पौन। बलत अचंभा मानिया, बुझत अचंभा कौन ।। २॥ जगमें. ॥ जो छिन जाय सो आयुमें, निशि दिन ढूकै काल। बांधि सकै तो है भला, पानी पहिली पाल ।।३॥ जगमें. ।। मनुष देह दुर्लभ्य है, मति चूकै यह दाव। भूधर राजुलकंतकी, शरण सिताबी आव ॥४॥जगमें.॥ ओ अज्ञानी ! तू चेत, जाग। इस जगत में यह जीवन बहुत थोड़ा है । यह तेरा जीवन ऊँचे ताड़वृक्ष से गिरे हुए फल की भाँति हैं, मृत्यु होने पर यह मिट्टी में मिल जाता है, इसको अन्यत्र कहीं स्थान नहीं है। जैसे कोई ऊँचे पहाड़ की चोटी पर जहाँ चारों ओर से पवन के झोंके आ रहे हैं, दीपक जलावे और ऐसे में वह दीपक जल रहा हो, यह तो आश्चर्य है, उसके बुझ जाने पर क्या आश्चर्य? इस आयु में जो क्षण बीत जाय, वह ही जीवन है, क्योंकि मृत्यु तो दिन-रात आई खड़ी है। जैसे बरसात के जल-प्लावन (बाढ़ आने) से पूर्व पाल बाँधकर बचाव करते हैं तो ही भला होता है (वैसे ही तुझे मृत्यु आने से पूर्व अपने बचाव के लिए कुछ करना है तो करले) । यह मनुष्य देह पाना अत्यन्त दुर्लभ है, यह अवसर मत चूक और राजुल के कंत भगवान नेमिनाथ की शरण में शीघ्र ही आ जा। दिवला - दीपक । बाजै .. चले । ढूके - निकट आवे। सिताबी = शीघ्रता से। भूधर भजन सौरभ
SR No.090108
Book TitleBhudhar Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size2 MB
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